स्वदेशी आंदोलन का प्रसार तथा नेतृत्व

स्वदेशी आंदोलन का प्रसार तथा नेतृत्व

स्वदेशी आंदोलन का महत्व ;

इस आंदोलन में अनेक प्रवृत्तियाँ और शक्तियाँ विद्यमान थीं जिन्होंने बीज रूप में ही सही पर 1947 ई. तथा उसके बाद के समय में भी भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। स्वदेशी आंदोलन ने परवर्ती स्वतन्त्रता आंदोलन के लिए नींव रखने का काम किया तथा राष्ट्रवाद को व्यावहारिक राजनीति की धरातल पर ला खड़ा कर दिया। इस आंदोलन ने सिद्धांतों, विचारधाराओं एवं भावनाओं की सीमाओं से ऊपर उठकर भारतीयों में एकता एवं अखण्डता जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित किया, जिसके फलस्वरूप भारत का समग्र राष्ट्रीय जीवन आंदोलित हुआ।

यद्यपि अपने तात्कालिक लक्ष्यों की पूर्ति में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन असफल रहा क्योंकि इस अवसर पर बंगाल विभाजन को समाप्त नहीं किया गया, किंतु इसके दूरगामी लाभ निश्चित रूप से प्राप्त हुए। उदाहरण के लिए, भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन मिला तथा विदेशी वस्तुओं के आयात में कमी आई। ब्रिटिश सरकार ने जब आंदोलन का दमन करना चाहा तो उग्र राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ। कालांतर में यह आंदोलन शिथिल पड़ गयी और नेतृत्वविहीन हो गया क्योंकि इसके अधिकांश नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका था। स्वदेशी आंदोलन के लक्ष्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने कहा कि ’’भारत का वास्तविक शासन बंगाल विभाजन के उपरांत शुरू हुआ। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र-उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और फैशन में स्वदेशी की भावना का संचार हुआ। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के किसी भी चरण में इतनी अधिक सांस्कृतिक जागृति देखने को नहीं मिलती, जितनी की स्वदेशी आंदोलन के दौरान।’’

बंगाल विभाजन का निरस्तीकरण, 1911 ;

लाॅर्ड मिन्टो (द्वितीय) द्वारा 1906 ई. में गठित ’अरुण्डेल कमेटी’ की अनुशंसा पर बंगाल विभाजन को सन् 1911 ई. में रद्द कर दिया गया। लाॅर्ड कर्जन के उपरांत आए नए गवर्नर जनरल लाॅर्ड मिन्टो (द्वितीय) ने राजनीतिक सुधारों के विषय में सलाह देने के उद्देश्य से इस कमेटी का गठन किया। बंगाल विभाजन रद्द करने के पीछे अरुण्डेल कमेटी की सिफारिश के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी थीं।

 कांग्रेस का सूरत विभाजन, 1907 ;

. 1905 ई. के बंगाल विभाजन का कांग्रेस के उदारवादी एवं उग्रवादी गुटों के मध्य बढ़ते हुए मतभेदों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा। यद्यपि गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के 1905 ई. के वाराणसी अधिवेशन में बंगाल विभाजन का पुरजोर विरोध किया गया, किंतु उदारवादी बहिष्कार संबंधी प्रस्ताव को खुला समर्थन देने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि ऐसा करना उनकी नीति ’याचना और अनुनय’ के विरूद्ध था। कांग्रेस का अगला अधिवेशन 1906 ई. में कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन में अध्यक्ष पद को लेकर उदारवादी एवं उग्रवादी गुटों में विवाद उत्पन्न हो गया। लेकिन दादाभाई नौरोजी को अध्यक्ष चुन लिये जाने पर यह विवाद खत्म हो गया। उग्रवादियों ने दबाव डालकर स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा एवं स्वशासन से जुड़े चार प्रस्ताव पारित करवा लिए। इसी अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने सर्वप्रथम ’स्वराज’ शब्द का उल्लेख किया। कांग्रेस का अगला अधिवेशन नागपुर में प्रस्तावित था जो कि उग्रवादियों का गढ़ माना जाता था। अंतिम समय में इसका स्थान परिवर्तित कर सूरत का चयन किया गया। दिसम्बर, 1907 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन ताप्ती नदी के किनारे सूरत में हुआ। इस अधिवेशन में उग्रवादियों ने अध्यक्ष पद के लिए लाला लाजपत राय का नाम प्रस्तावित किया, किंतु उदारवादियों ने रासबिहारी घोष को अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। साथ ही, उग्रवादियों द्वारा 1906 ई. के अधिवेशन में पास करवाये गए चार प्रस्तावों स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वशासन के मुद्दे पर मतभेद खुलकर सामने आया, जिसकी परिणति प्रथम कांग्रेस विभाजन के रूप में सामने आयी।

सूरत विभाजन के पश्चात् उग्रवादियों के लिए कांग्रेस के द्वार बंद कर दिए गए। सभी बड़े उग्रवादी नेताओं को ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक तथा विपिनचंद्र पाल (लाल, बाल, पाल) प्रमुख थे। अप्रैल 1908 में इलाहाबाद में एक सम्मेलन आयोजित किया गया िजसमें कांग्रेस के लिए एक नवीन संविधान और नियमावली तैयार की गई। 1908 ई. के मद्रास अधिवेशन में इस नवीन संविधान का अनुमोदन किया गया।

अगले 8 वर्षों में कांग्रेस का स्वरूप एक राष्ट्रीय संस्था के दलीय संगठन के रूप में परिवर्तित हो गया। कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में उदारवादी अपनी पुरानी अनुनय-विनय की पद्धति के माध्यम से सामान्य माँगों की ही पुनरावृत्ति करते रहे। इन माँगों की ओर ब्रिटिश सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया और जनता भी इन्हें महत्वहीन समझती थी।

 अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना;

1 अक्टूबर, 1906 को तत्कालीन वायसराय लार्ड मिंटो से मुसलमानों का एक शिष्टमंडल आगा खाॅ के नेतृत्व में शिमला में मिला। इस शिष्टमंडल द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में मुसलमानों की गौरवशाली ऐतिहासिक राजनीतिक प्रस्थित, वर्तमान राजनीतिक महत्व एवं सैन्य भर्ती को ध्यान में रखते हुए भारतीय मुसलमानों के लिए विशिष्ट स्थिति की माॅग की गई। इस प्रतिनिधि मंडल के नेताओं को लाॅर्ड मिण्टो द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि एक संप्रदाय के रूप में मुसलमानों के  राजनीतिक अधिकारों की रक्षा की जायेगी। ब्रिटिश सरकार से इस प्रकार का आश्वासन मिलने के पश्चात् पूर्वी बंगाल में मुसलमानों द्वारा बंगाल के पक्ष में सभाओं का आयोजन किया गया। ढाका के नवाब सलीम्उल्लाह (या हबीबउल्लाह) ने लाॅर्ड कर्जन की प्रेरणा से बंगाल विभाजन के समर्थन में हुए आंदोलन का समर्थन किया। इसके  पश्चात् 30 दिसम्बर 1906 को नवाब सलीमउल्लाह के नेतृत्व में ढाका में एक बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का गठन किया गया। इस संगठन की स्थापना तीन उदेश्यों की पूर्ति हेतु की गई थी- पहला, मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा को बढ़ाना, दूसरा, मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों का विस्तार एवं उनकी रक्षा करना तथा तीसरा लीग के अन्य उदेश्यों को दुष्प्रभावित किए बिना अन्य संप्रदायों के प्रति असहिष्णुता एवं कटुता की भावना के प्रसार को रोकना । इसी अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने भारतीय कांग्रेस के बढ़ते हुए प्रभाव को सीमित करने के संबंध में भी प्रस्ताव वपास किया।

आंरभिक वर्षों में मुस्लिम लीग का उदेश्य अपनी स्थिति को मजबूत करना तथा निर्वाचन के लिए संघर्ष करना था। 1908 ई0 में मुस्लिम लीग के अमृतसर  अधिवेशन में पृथक निर्वाचक मंडल की माॅग की गई, जिसे 1909 ई के मार्लें-मिण्टो सुधारों में मान लिया गया।

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