परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System)

परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System)

परिसंचरण तन्त्र में हृदय रक्तवाहिकाएँ तथा लसिका वाहिनियों को सम्मिलित किया जाता है। हृदय एक विशाल पम्प के रूप में कार्य करता है तथा रक्त को सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित करता है। धमनियाँ शुद्ध रक्त को हृदय से शरीर में ले जाती है और शिराएँ अशुद्ध रक्त को शरीर से हृदय तक लाती है। केशिकाओं (Capillaries) में धमनी तथा शिरा के रक्त का सम्मिलन होता है। यहाँ रक्त तथा अन्तराकोशिका तरल के मध्य पोषक पदार्थ प्राप्त करने, अपशिष्ट का त्याग करने तथा गैसों के विनिमय होने की क्रिया होती है। कोशिका भित्तियों से जो लिम्फ ऊतकों में रिसता है वह लसिका वाहिनियों द्वारा एकत्रित और परिशोधित होकर पुनः रक्त में मिल जाता है।

हृदय एक पेशी का बना शंकु (cone) के आकार का खोखला मांसल अंग है जिसका आधार ऊपर होता है और शिखर (apex) नीचे। शिखर का झुकाव तनिक बांयीं ओर होता है। हृदय का वजन लगभग 300 ग्राम होता है। हृदय वक्ष में फेफड़ों के मध्य उरोस्थि या स्टर्नम के पीछे स्थित होता है। इसका आकार लगभग बन्द मुठ्ठी के समान होता है एक भित्ति द्वारा यह दायें और बायें भागों में विभाजित होता है। ये दोनों भाग पुनः दो कोष्ठों में बँटे होते हैं। ऊपर का कोष्ठ ’अलिंद’ (auricle) तथा नीचे का कोष्ठ निलय  कहलाता है। इस प्रकार दो अलिंद तथा दो निलय होते हैं। मनुष्य का हृदय चार कोष्ठीय होता है। आकार में निलय अलिंद से बड़ा होता है तथा निलय की दीवार भी अलिंद से बहुत मोटी होती है। अलिंद और निलय एक दूसरे के द्वारा जुड़े होते हैं। यह द्वार कपाटों (वाल्व) द्वारा सुरक्षित रहता है। दाँयी ओर का कपाट त्रिकपर्दी (ventricle) होता है, तथा बांयी ओर का कपाट द्विकपर्दी  tricuspid या माइट्रल वाल्व कहलाता है। अलिन्द-निलय वाल्व में से रक्त केवल अलिन्द से निलय की ओर प्रवाहित हो सकता है। इसके विपरीत दिशा में नहीं। त्रिकपदीं वाल्व तीन कपर्दिकाओं (cusps) तथा माइट्रल वाल्व दो कपर्दिकाओं से बनता है।

हृदय आवरण अथवा पैराकार्डियम के एक दोहरे कोश के भीतर बन्द होता है। इस कोश की दोनों तहों के बीच में विद्यमान सीरमी तरल इन तहों को चिकना रखता है जिससे हृदय मुक्त रूप से गतिशील बन जाता है।

हृदय की भित्ति की तीन परतें होती हैं पेरिकार्डियम नामक बाहरी परत, मायोकार्डियम नामक मध्य परत तथा एण्डोकार्डियम नामक उपकला की भीतरी परत होती है।

हृदय से सम्बद्ध रक्त वाहिकाएँ :- ऊध्र्व और निम्न महाशिराएँ अपना रक्त दायें आलिंद में डालती हैं। निम्न महाशिरा जहाँ दायें अलिंद में खुलती है, उस स्थान का यूस्टेशियस का अर्द्धचन्द्र वाल्व (Semi lunar valve of Eustachian) उचित दिशा में रक्त प्रवाह बनाये रखने में सहायक होता है। फुस्फुस धमनी दायें निलय से रक्त फेफड़ों तक ले जाती है तथा वहाँ से रक्त चार फुस्फुस शिराओं द्वारा बायें अलिंद में जाता है। बांयें निलय से रक्त ’एओर्टा’ अथवा महाधमनी में प्रवाहित होता है। एओर्टा तथा फुफ्फुस के धमनी द्वार अर्द्धचन्द्र वाल्वों द्वारा सुरक्षित रहते हैं। बांये निलय तथा महाधमनी के बीच का वाल्व एओर्टिक वाल्व कहलाता है तथा रक्त को एओर्टा से वापस बायें निलय में जाने से रोकता है। दायें निलय और फुफ्फुस धमनी के बीच का वाल्व फुफ्फुस वाल्व  कहलाता है तथा रक्त को विपरीत दिशा में फुफ्फुस धमनी से दायें निलय में जाने से रोकता है।

हृदय ऊतक से रक्त की वापसी मुख्यतः ’कारोनरी साइनस’ द्वारा होती है जो सीधे दायें अलिंद में खुलता है।

हृदय एक पम्प के समान कार्य करता है। रक्त के परिसंचरण से सम्बन्धित क्रियाएँ जो हृदय में होती हैं, उसे सम्मिलित रूप से हृदय चक्र कहा जाता है। अलिंन्द और निलय की क्रिया को दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रंकुचन या सिस्टोल तथा अनुशिथिलन या डायस्टोल।

सिस्टोल में हृदय के कोष्ठ सिकुड़ते हैं तथा डायस्टोल में कोष्ठ रक्त से भरकर फूल जाते हैं। दोनों अलिंदों का सिस्टोल एक साथ होता है। दोनों अलिंदों का डायस्टोल भी एक ही समय होता है। यही बात निलयों पर भी लागू होती है। निलय का प्रंकुचन या सिस्टोल 0.3 सेकेण्ड तथा अनुशिथिलन कुछ अधिक 0.5 सेकेण्ड रहता है। यही क्रम जीवन पर्यन्त दिन रात चलता रहता है।

हृदय पेशी की कुछ विशेषताओं में संकुचन शीलता जिसके कारण हृदय रूपी पम्प अपने कोष्ठों में रक्त को निष्कासित कर देता है। डायस्टोल के समय ये कोष्ठ रक्त में पुनः भर जाते हैं। चालकता (conductivity) ताल (Rhythm) जिसमें बिना किसी तन्त्रिका प्रभाव के उसमें स्वचालित ताल बद्ध संकुचन होता रहता है।

धमनी नाड़ी (Arterial Pulse) :- यह अधिक दाब की एक लहर है जो धमनियों में उस समय प्रकट होती है, जब हृदय रूपी पम्प रक्त को बाहर धकेलता है। नाड़ी का स्पर्श करते समय जो स्पन्दन अनुभव होता है, वह हृदय द्वारा महाधमनी एओर्टा) में धकेले गये रक्त के पहुँचने के कारण नहीं बल्कि ओर्टा में रक्तदाब के कारण होता है। नाड़ी की गति हृदय चक्र से सम्बन्धित होती है। नाड़ी की गति 70 हो तो हृदय की धड़कन भी एक मिनट में 70 बार होती है। नाड़ी की गति का सामान्य परिसर (स्पंदन प्रति मिनट)

नवजात शिशु में 140                                पाँच वर्ष 96-100
प्रथम वर्ष में 120                                      दस वर्ष पर 80-90
द्वितीय वर्ष में 110                                    वयस्क व्यक्ति में 60-80

विश्राम के समय हृदय लगभग 70 बार प्रतिमिनट धड़कता है तथा हर बार 70ml रक्त धकेलता है। इस प्रकार एक मिनट में पम्प किये गये रक्त का परिणाम 70×70ml अर्थात लगभग 5 लीटर होता है। हृदय जितना रक्त बाहर धकेलता है ठीक उतना ही रक्त प्रति मिनट शिराओं द्वारा हृदय में वापस आता है। प्रति शिरा प्रति गमन (venous returns) और हृदय विकास का संतुलन न रहे और निलय हृदय में आने वाले सारे रक्त को निष्कासित न कर पाये तो हृदयपात (Heart failures) की स्थिति पैदा हो जाती है।

रक्त का परिसंचरण:-बायें अलिन्द से रक्त महाधमनी अथवा एओर्टा में आता है, जो शरीर की सबसे बड़ी धमनी है। इस महाधमनी से अनेक छोटी धमनियाँ निकलती हैं जो शरीर के विभिन्न भागों तक जाती हैं। धमनिकाओं की भित्ति पेशी के संकुचन अथवा शिथिलन के कारण धमनियों का आकार आवश्यकतानुसार न्यूनाधिक होता रहता है। इस प्रकार धमनीय रक्त दाब के स्थिर रहने में सहायता मिलती है तथा केशिकाओं की भित्ति के पतली होने के कारण प्लाज्मा और अन्तराली तरल का परस्पर विनिमय होता रहता है। शिराएं आपस में मिलते-मिलते दो महाशिराओं का रूप लेती है। पहली अधः महाशिरा  है जो धड़ तथा निचली शाखाओं से रक्त एकत्रित करती हैं। तथा दूसरी ऊध्र्व महाशिरा है जो सिर तथा ऊपरी शाखाओं से रक्त एकत्रित करती है। ये दोनों महाशिराएँ हृदय के दायें अलिंद में खुलती है।

फुफ्फुस परिसंचरण :- दायें अलिन्द से रक्त दायें निलय में जाता है और उसके संकुचित होने पर फुफ्फुस धमनी में धकेल दिया जाता है। फुफ्फुस धमनी दो भागों में विभाजित होकर रक्त को दायें बायें फुफ्फुस में ले जाती है। फुफ्फुसीय धमनी में अशुद्ध रक्त प्रवाहित होता है। धमनियों में रक्त उच्च दाब पर बहता है, इस दाब को प्रकुंचन दाब (systolic pressure) कहते हैं। यह दाब निलयों के संकुचन से उत्पन्न होता है। निलय के अनुशिथिल के फलस्वरूप अनुशिथिलन दाब (Diastolic pressure) उत्पन्न होता है। किसी कारणवश प्रकंचन दाब में अस्थायी वृद्धि होने पर यदि रक्त दाब में स्थायी वृद्धि हो जाये तो इसे उच्च रक्त ताप  या हाइपर टेन्सन कहते है। रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा बढ़ जाने से यह धमनियों की भीतरी दीवार पर जम जाता है जिससे धमनियाँ सँकरी और कड़ी हो जाती है, इसे आर्टेरियोस्क्लेरोसिस (Arteriosclerosis) कहते हैं। इसके फलस्वरूप भी रक्तदाब बढ़ जाता है।

शरीर में रक्त की कमी, रक्तस्राव या हृदय की कार्य क्षमता में कमी आने से ’निम्न रक्त दाब’ या हाइपोटेन्शन (Hypo tension) नामक रोग हो जाता है।

शिराएं शरीर के समस्त अंगों से अशुद्ध रक्त हृदय में लाती हैं लेकिन फुफ्फुसीय शिरा इसका अपवाद है जिसमें शुद्ध रक्त बहता है।

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