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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन

औपनिवेशिक शासन का परिणाम: विदेशी शासन के रूपों में  राष्ट्रीय भावना के उदय में योगदान दिया। पहला, विदेशी शासकों की विभेदकारी शोषणकारी आर्थिक नीतियों ने भारतीय कृषि तथा पारम्परिक उद्योगों को नष्ट कर आत्मनिभर्रतामूलक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन परिणामस्वरूप लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रोश की भावना का उदय हुआ। ब्रिटिश शासन द्वारा अपने हितों की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया रेलवे का विस्तार तथा डाक प्रशासनिक व्यवस्था दूसरा प्रमुख कारण था। रेलवे का विस्तार तथा डाक एवं प्रशासन व्यवस्था के परिणामस्वरूप राष्ट्र का भौगोलिक एकीकरण हुआ। देश के विभिन्न भागों में निवास करने वाले लोगों एवं नेताओं का पारस्परिक संपर्क हुआ, जिससे राष्ट्रवाद को बल मिला। ब्रिटेन की भारत क घन के स्वयं के हित के लिए दोहन की नीति ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय हित और ब्रिटिश परस्पर विरोधी है।

भारतीय पुनर्जागरण :भारतीय पुनर्जागरण ने भी अपने दो स्वरूपों में राष्ट्रवाद की भावना को आश्रय दिया। पहला, उसने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, अनैतिकताओं, अवांछनीयताओं एवं रूढ़ियों से मुक्ति का मार्ग दिखाया तथा दूसरा, श्रोताें के अधिभार सिद्धांत के विपरीत भारतीय संस्कृति के गौरव को पुर्नस्थापित किया। इसके परिणामस्वरूप देश में एक नवीन राष्ट्रीय चेतना की भावना को बल मिला।

पाश्चात्य शिक्षा एवं चिंतन: पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों को पश्चिमी पुनर्जागरण के उचित मूल्यों से परिचित कराया तथा एक वैचारिक आयाम किया। फ्रांसीसी क्रांति के अदर्शो को दिया। परिणामस्वरूप वे भी अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गए और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा मिली।

प्रेस तथा समाचार पत्रों की भूमिका: प्रेस तथा समाचार-पत्रों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादी तंत्र की मानसिकता से लोगों को परिचित कराया तथा देशवासियों के मन में एकता की भावना को जागृति किया, समाचार-पत्रों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर लिखे गए लेखों ने देशवासियों को अधिकार बोध की चेतना से भर दिया, जिसके फलस्वरूप एक संगठित आंदोलन का सूत्रपात हुआ।

तत्कालिक कारण: उर्पुक्त कारणों के अलावा अन्य कई तत्कालिक कारण थे, जिन्होंने राष्ट्रवाद की भावना के उदय में सहयोग किया, यथा-इल्बर्ट बिल विवाद, सिविल सर्विस की आयु-सीमा को कम करना (1876 ई.) दक्षिण भारत में भयंकर अकाल के समय, दिल्ली दरबार का आयोजन करना 1877 ई. तथा शस्त्र अधिनियम् 1878 ई. इत्यादि। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों तथा भारतीय हितों के टकराव ने भारत में एक नए युग का सूत्रपात किया जिसने परवर्ती राष्ट्रीय आंदोलन की अधार शिला रखी।

भारत एक भागोलिक इकाई मात्र नहीं था, बल्कि इस विविधता में सांस्कृतिक एंव ऐतिहासिक एकता भी अन्तर्निहित थी जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन के आरंभ, विकस एवं सफलता की ओर अग्रसर होने में सहायता प्रदान की। विविधता के मूल में अंतर्निहित यह राष्ट्रीय चेतना ही थी जिसने राष्ट्रवाद को प्रेरणा दी तथा यह चेतना विशिष्ट वर्ग की अपनी बौद्धिक सीमा को लांघते हुए सुदूर क्षेत्रों तक जा फैली। हांलांकि यह सच है कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक एकता तथा आधुनिक एकता तथा आधुनिक विचारों के प्रचार-प्रसार ने भी एक सीमा तक राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया लेकिन यह भी सच है कि ब्रिटिश राज्य की स्थापना राष्ट्रवाद के बीजारोपण करने के लिए नहीं बल्कि औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की गई थी। अंग्रेजों की यह स्पष्ट नीति रही की यह  भारतीयों में किसी भी प्रकार की एकता न होने पाये बल्कि उनमें फूट डालकर उन पर राज किया जाये। वस्तुतः इस उदय मान राष्ट्र की प्रक्रिया ने बुद्धिजीवी वर्ग, मध्य वर्ग, किसानों, श्रमिकों आदि को समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विदेशी शासकों के विरूद्ध एकजुट किया। इसके अलावा लोकतंत्रीय, उदारवादी आकांक्षा इस समय की प्रमुख घटनाएॅ थी, जिसे अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, क्रांन्ति तथा रूसी क्रांन्ति से शीख मिल रही थी। इन घटनाओं ने गुलाम देशों को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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