WhatsApp Channel Join Now
Telegram Group Join Now

मराठा साम्राज्य-पेशवाओं का उत्थान

पेशवाओं का उत्थान

    शाहू के समय में पेशवाओं का पुनः उत्थान हुआ। धीरे-धीरे वे ही मराठा राज्य के सर्वेसर्वा बन गये।

बाला जी विश्वनाथ’’ (1713-20)

बाला जी विश्वनाथ मराठा साम्राज्य के द्वितीय संस्थापक माने जाते हैं। इन्हीं के साथ में पेशवा का पद आनुवंशिक हो गया। बाला जी विश्वनाथ को शाहू ने सर्वप्रथम सेना कर्ते के पद पर नियुक्त किया बाद में 1713 में इन्हें पेशवा बना दिया गया। इनकी प्रमुख सफलता 1719 ई0 में हुसैन अली के साथ की गई सन्धि थी। इस सन्धि के द्वारा मुगलों ने मराठों के दक्षिण से चैथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार दे दिया। यह मराठों की बहुत बड़ी सफलता थी। अंग्रेज इतिहासकार रिचर्ड टेम्पल ने इसे मराठों का मैग्नाकार्टा कहा। परन्तु इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने से मुगल शासक फर्रुखसियर ने मना कर दिया। फलस्वरूप बालाजी विश्वनाथ की मदद से फर्रुखसियर को गद्दी से हटाकर रफी उद्दरजात को शासक बनाया गया। और उससे ही सन्धि पर हस्ताक्षर करवा लिये गये।

बाजीराव प्रथम (1720-40)

यह बाला जी विश्वनाथ का पुत्र था शिवा जी के बाद मराठों के छापामार युद्ध का नेतृत्व करने वाला यह दूसरा बड़ा योद्धा था। इसने ’’हिन्दू पद पादशाही’’ के आदर्श को सामने रखा। पेशवा का पद सम्भालने के बाद इन्होंने शाहू से कहा ’’अब समय आ गया है कि हम इस खोखले वृक्ष के तने पर प्रहार करें शाखाये तो अपने आप ही गिर जायेंगी’’ इस पर शाहू का जवाब था कि ’’आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं आप अपने झंडे को हिमालय तक लहरायें’’ बाजीराव प्रथम की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं।
1. निजाम को पराजित करना:- बाजीराव प्रथम ने दक्षिण के निजाम निजामुलमुल्क को 1728 ई0 में पालखेड़ के समीप पराजित किया और उससे मुंगी सिवा गाँव की सन्धि की।
इस सन्धि के द्वारा निजाम ने शाहू को दक्षिण में चैथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया।
2. बुन्देल खण्ड की विजय:- बुन्देले राजपूतों के ही वंशज थे। बुन्देल नरेश छत्रशाल के कुछ क्षेत्रों को इलाहाबाद छत्रशाल ने पेशवा से सहायता मांगी मराठों की मदद से छात्रशाल को अपने विजित प्रदेश वापस मिल गये। इस खुशी में छत्रसाल ने बाजीराव प्रथम को कुछ क्षेत्र जैसे काल्पी सागर, झाँसी, हृदय नगर आदि प्रदान किये।
3. गुजरात विजय:- गुजरात से मराठे चैथ और सरदेशमुखी वसूलते थे। शाहू ने गुजरात से कर वसूलने का भार मराठा सेनापति त्रियम्बक राव दाभादे को दे दिया। परन्तु वह इससे सन्तुष्ट न था। बाजीराव प्रथम ने दाभादे को 1731 में डभोई के युद्ध में पराजित किया। इस तरह गुजरात पर मराठों का आधिपत्य बना रहा।
4. शाहू की प्रभुसत्ता स्थापित करना:– बाजीराव प्रथम ने 1731 की वार्ना की सन्धि के द्वारा शाहू की प्रभुसत्ता सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र में स्थापित की।
5. दिल्ली पर आक्रमण:- 1737 ई0 में बाजीराव प्रथम दिल्ली पहुँचा वहाँ केवल तीन दिन ठहरा मुगल शासक मुहम्मद शाह रंगीला द्वारा मालवा की सूबेदारी का आश्वासन दिये जाने के बाद वह वहाँ से हट गया वापस आते समय भोपाल के निकट उसमें निजामुलमुल्क को पराजित किया फलस्वरूप निजाम को 1788 में दुर्रइ सराय की सन्धि के लिए विवश होना पड़ा। इस सन्धि के द्वारा निजाम ने सम्पूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चम्बल के इलाके मराठों को सौंप दिये। इस प्रकार मध्य क्षेत्र में मराठों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
6. वसीन की विजय (1739):- वसीन का क्षेत्र पुर्तगीजों के अधीन था। मराठा सरदार चिमनाजी अप्पा के नेतृत्व में वसीन पर अधिकार कर लिया गया। यह किसी यूरोपीय शक्ति के विरूद्ध मराठों की महानतम विजय थी।

बाला जी बाजीराव (1740-1761)

यह बाजीराव प्रथम का पुत्र था इसी के समय में 1750 ई0 में मराठा शासक राजाराम द्वितीय ने संगोला की संधि की जिसके द्वारा उन्होंने अपने समस्त अधिकार पेशवा को सौंप दिये। बालाजी बाजीराव के काल की प्रमुख घटना निम्नलिखित हैं-
1. बाला जी बाजीराव के समय में ही मराठा राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ परन्तु पानीपत के तृतीय युद्ध में पराजय के साथ ही इनका विघटन भी प्रारम्भ हो गया।
2. पूर्व में प्रसार:- मराठा सरदार रघुजी ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नवाब अलीवर्दी खाँ के राज्य पर लगातार आक्रमण किये बाध्य होकर 1751 ई0 में उसने मराठों को उड़ीसा दे दिया तथा बंगाल एवं बिहार से चैथ और सरदेशमुखी के रूप में 12 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया।
3. मराठों का पंजाब तथा दिल्ली में उलझना:- 1757 ई0 में रघुनाथ राव एक सेना लेकर दिल्ली पहुँचा वहाँ उसने अहमदशाह अब्दाली द्वारा नियुक्त मीर बक्शी नजीबुद्दौ को हटा दिया। 1758 ई0 में रघुनाथ राव पंजाब की ओर बढ़ा और अब्दाली के पुत्र राजकुमार तैमूर को पंजाब से निकाल बाहर किया तथा उसकी जगह अदीना बेग खाँ को पंजाब का गर्वनर नियुक्त किया परन्तु इसकी भी जल्दी मृत्यु हो गई तब साबा जी सिंधिया को यह पद दिया गया।
    अहमदशाह अब्दाली ने मराठों की इस चुनौती को स्वीकार किया, नजीबुद्दौला और पठानों ने अब्दाली को प्रेरित किया कि वह काफिरों को दिल्ली से निकाल बाहर करें। फलस्वरूप पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ।

पानीपत का तृतीय युद्ध (14 जनवरी 1761)

मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच:- बालाजी बाजी राव के समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना पानीपत को तृतीय युद्ध था। 1759 ई0 में अन्तिम दिनों में अब्दाली ने सिन्धु नदी पार की और पंजाब को जीत लिया। पंजाब के प्रमुख सब्बा जी सिंधिया और उनके सहायक दत्ता जी सिंधिया उसे रोकने में असफल रहे और दिल्ली की ओर लौट आये दिल्ली के पास बराड़ी घाट के एक छोटे से युद्ध में दत्ता जी सिंधिया मारे गये।
अब पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिव राव भाऊ को सेनापति बनाकर भेजा उनके साथ उसने अपने पुत्र विश्वास राव को भी भेजा। भाऊ ने अगस्त 1760 ई0 में दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 14 जनवरी 1761 ई0 में पानीपत के मैदान में दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में नजीबुद्दौला ने अवध के नवाब सुजाउद्दौला, रुहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ से अब्दाली को समर्थन दिलवाया। जाट सरदार सूरजमल पहले मराठों को समर्थन देने का वायदा किया परन्तु सदाशिव राव के व्यवहार से तंग आकर अपने को इस युद्ध से अलग कर लिया। युद्ध में पेशवा पुत्र विश्वास राव, सदाशिव राव जसन्त राव पवार, तुकोजी सिंधिया, पिल्लैजी जादव जैसे 27 महान मराठा सरदार सैकड़ों की संख्या में छोटे सरादर तथा 28000 मराठा सिपाही मारे गये। मल्हार राव वोल्वर युद्ध के बीच में ही भाग निकला। एक अफगान इब्राहिम खाँ गर्दी मराठा तोपखानों का नेतृत्व कर रहा था। गार्दी फ्रांसीसी सेना से लड़ने में पश्चिमी युद्ध के तरीकों से प्रशिक्षित हुआ था परन्तु इसका तोपखाना अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ जबकि अब्दाली की ऊंटों पर रखी घूमने वाली तोपों ने मराठों का सर्वनाश कर दिया। पेशवा को युद्ध के परिणाम की सूचना और अपने सेनापतियों तथा पुत्र के मारे जाने की सूचना कुछ व्यापारियों ने आकर दी उन्होंने कहा ’’युद्ध में दो मोती विलीन हो गये तथा बड़ी संख्या में धन और जन की हानि हुई’’।
पानीपत युद्ध का राजनैतिक महत्व:-मराठा इतिहासकारों में पानीपत के तृतीय परिणामों को लेकर मतभेद हैं ज्यादातर मराठा इतिहासकारों के अनुसार मराठों ने 25 हजार सैनिकों के अतिरिक्त राजनैतिक महत्व का कुछ भी नहीं खोया जबकि सरदेसाई का कहना था कि ’’इस युद्ध ने यह निर्णय नही किया कि भारत पर कौन शासन करेगा बल्कि यह निर्णय किया कि भारत पर कौन शासन नही करेगा।’’ अंग्रेज इतिहासकार सिड़नी ओवन ने लिखा है ’’इससे मराठा शक्ति कुछ काल के लिए चूर-चूर हो गई। यद्यपि वह बहुमुखी दैत्य मरा तो नही परन्तु इतनी भली-भाँति कुचला गया कि यह लगभग सोया रहा तथा जब यह जागा तो अंग्रेज इससे निपटने के लिए तैयार थे।’’ पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रत्यक्ष दर्शी काशीराज पंडित के शब्दों में ’’पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ’’। मराठों की पानीपत में पराजय सिक्ख राज्य के उदय की सहायक बनी वास्तव में इस युद्ध का यह अप्रत्यक्ष परिणाम था।

माधवराव-प्रथम  (1761-72)

पानीपत के युद्ध में पराजय के बाद माधवराव ने मराठों की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः बहाल करने का प्रयत्न किया उसने हैदराबाद के निजाम और मैसूर के हैदर अली को चैथ देने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार दक्षिण भारत में मराठों के सम्मान को बहाल करने में मदद मिली। इसी के काल में मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को इलाहाबाद से दिल्ली लाया गया उसने मराठों की संरक्षिका स्वीकार कर ली परन्तु इसी बीच क्षयरोग से इसकी मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के बाद मराठा राज्य गहरे संकट में आ गया। इतिहासकार ग्राण्ट डफ ने लिखा है कि ’’पेशवा की शीघ्र मृत्यु पानीपत की पराजय से आर्थिक घातक थी।

नारायण राव (1772-73)

माधव राव की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नारायण राव पेशवा बना लेकिन इसका चाचा रघुनाथ राव स्वयं पेशवा बनना चाहता था अतः उसने नारायण राव की हत्या कर दी।

माधव नारायण राव (1774-95)

यह नारायण राव का पुत्र था जो अल्प वयस्क था अतः नाना फणनवीस के नेतृत्व में मराठा सरदारों ने मराठा राज्य की देखभाल करने के लिए बार-भाई-कौसिल की नियुक्ति की अब रघुनाथ राव पूना से भागने पर मजबूर हुआ और बम्बई जाकर अंग्रेजों से सहायता माँगी। उसके इस दुर्भाग्य पूर्ण प्रयास से प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध की भूमिका तैयार हुई।
प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध (1775-82)
रघुनाथ राव ने 1775 ई0 में बम्बई की अंग्रेजी सरकार से सूरत की संधि की।
सूरत की संधि (1775):- इस संधि के द्वारा यह तय हुआ की अंग्रेज रघुनाथ राव को पेशवा बनाने में मदद करेंगे इसके बदले में साल्सेट और बसीन के क्षेत्र अंग्रेजी को प्राप्त होने थे। इसके साथ भड़ोच की आय में भी अंग्रेजी का हिस्सा माना गया।
पुरन्दर की संधि (1776):- यह संधि नाना फणनवीस एवं महादजी सिंधिया के प्रयत्न से कलकत्ता की अंग्रेजी सरकार से की गई। इस संधि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थी।

  1. इसके द्वारा सूरत की संधि रद्द कर दी गई।
  2. अंग्रेजों को साल्सेट और एलिफैण्टा के क्षेत्र देने की बात मान ली गई।
  3. अंग्रेजों को रघुनाथ राव का साथ छोड़ने के लिए भी तैयार होना पड़ा।
  4. भड़ौच और सूरत के राजस्व में से हिस्सा अंग्रेजों को देना स्वीकार कर लिया गया।

इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में जब दो अलग-अलग सन्धियां अलग-अलग वर्गों द्वारा की गई तब इग्लैंड में कम्पनी के अधिकारियों ने सूरत की संधि को ही मान्यता प्रदान की फलस्वरूप 1775 से जारी युद्ध चलता रहा। 1779 ई0 में तलईया गाँव की लड़ाई में अंग्रेजों की पराजय हुई जिसके फलस्वरूप बम्बई सरकार को एक अपमान जनक बड़गाँव की संधि 1779 ई0 में करनी पड़ी इस संधि के द्वारा बम्बई सरकार द्वारा जीती गई समस्त भूमि लौटा देने की बात कही गई तथा यह भी कहा गया कि बंगाल से पहुँचने वाली फौज हटा ली जायेगी। बड़गाँव की अपमान जनक संधि को हेस्टिंग्स ने मानने से इंकार कर दिया अन्ततः महादजी के प्रयत्नों से अंग्रेजों और पूना सरकार के बीच सालबाई की संधि हो गई।

सालबाई की संधि (1782)

  1. माधव नारायण राव को पेशवा स्वीकार कर लिया गया।
  2. साल्सेट द्वीप और बयाना के दुर्ग अंग्रेजों को दे दिये गये।

सालबाई की संधि ने अंग्रेजों और मराठों के बीच लगभग बीस वर्षों की शांति प्रदान की। 1800 ई0 में नाना फणनवीस की पूना में मृत्यु हो गई। पूना के ब्रिटिश रेजीडेण्ट पामर ने भविष्यवाणी की कि’’उसके साथ मराठा सरकार का सारा सयाना पन और संयम चला गया फलस्वरूप पूना दरबार षडयन्त्रों का केन्द्र बन गया-इस समय अलग-अलग मराठा सरदारों ने प्रमुखता प्राप्त कर ली’’।
उत्तर कालीन विभिन्न मराठा ग्रुप:- पेशवाओं के समय में मराठों की सत्ता में ह्ास के कारण उत्तर-काल में विभिन्न महत्वपूर्ण वर्गों का उदय हुआ इसमें चार वर्ग अत्यन्त प्रमुख वर्ग थे-

  1. बड़ोदा के गायकवाड़।
  2. इन्दौर के होल्कर।
  3. ग्वालियर के सिंधिया।
  4. नागपुर के भोंसले।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तीन मराठा सरदारों के नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है-
1. अहिल्याबाई:- यह इन्दौर की थी इसने 1766 से 96 तक इन्दौर में निष्कंटक शासन किया। उसी के बाद तुकोली होल्कर ने यहाँ का प्रशासन अपने हाथों में लिया।
2. महादजी सिंधिया:- ये ग्वालियर के थे इन्होंने अपना स्वयं ही शासन स्थापित किया था अपनी सेना के प्रशिक्षण के लिए इटली निवासी बिनोद बोवाइन की नियुक्ति की।
3. फणनवीस:- माधव नारायण राव को पेशवा बनाने में नाना फणनवीस का प्रमुख योगदान था यह बाराभाई कौंसिल का प्रमुख भी था। इसका पेशवा पर बाद में इतना आतंक छा गया कि उसने आत्म हत्या कर ली। पेशवा की मृत्यु के बाद बाजीराव द्वितीय पेशवा बना।

बाजीराव द्वितीय (1795-1818)

यह अन्तिम पेशवा था तथा रघुनाथ राव का पुत्र था। इसके समय में मराठा शक्ति पेशवा के हाथों में संचित न होकर सिंधिया होल्कर भोसले आदि के हाथों में संचित थी। होल्कर को अपमानित करने के लिए इसने सिंधिया से सन्धि कर ली। 1801 ई0 में होल्कर ने अपने भाई बिठठू जी को दूत बनाकर इसके पास भेजा परन्तु पेशवा ने उसकी हत्या कर दी। होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर पेशवा तथा सिंधिया की संयुक्त सेनाओं को 1802 में पराजित कर दिया तथा पूना पर अधिकार कर लिया। बाद में उसने विनायक राव को पूना की गद्दी पर बिठाया। बाजीराव द्वितीय ने भागकर बसीन में शरण ली और अंग्रेजों के साथ बसीन की संधि की।
बसीन की संधि (31 दिसम्बर 1802):- बाजीराव द्वितीय एवं अंग्रेजों के बीच, इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थी-

  1. पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर लिया तथा पूना में एक सहायक सेना रखना स्वीकार किया।
  2. पेशवा ने सूरत नगर कम्पनी को दे दिया। साथ ही गुजरात ताप्ती तथा नर्मदा के बीच के क्षेत्र भी कम्पनी को प्रदान किये।
  3. पेशवा ने अंग्रेजों के बीच किसी भी यूरोपीय को अपने यहाँ न रखने पर सहमत हो गया।

बसीन की सन्धि अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि पहली बार मराठा राज्य के प्रमुख ने अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार कर ली। इतिहासकार ओवन ने लिखा है ’’इस सन्धि ने प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रुपों में कम्पनी को भारत का साम्राज्य दे दिया’’ जब कि सरदेसाई के अनुसार ’’वसीन की सन्धि ने शिवाजी द्वारा स्थापित मराठों की स्वतंत्रता का अन्त कर दिया’’ इसके विपरीत गर्वनर जनरल वेलजली के छोटे भाई आर्थर वेलजली ने लिखा है कि ’8 वसीन की संधि एक बेकार आदमी के साथ की गई संधि थी’’। इस संधि से मराठों के सम्मान को बहुत बड़ा धक्का लगा फलस्वरूप भोंसले सिंधिया और होल्कर ने अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारा।
द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध (1803-06):- पेशवा द्वारा पूना से पलायन और बसीन की सन्धि करने से इस युद्ध की शुरुआत हुई यह युद्ध फ्रांसीसी भय से भी संलग्न था। परन्तु मराठा सरदार संकट की इस घड़ी में भी एकत्रित होकर युद्ध न कर सके फलस्वरूप उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।
भोंसले:-भोंसले को पराजित कर उससे 1803 ई0 में देवगाँव की सन्धि करने पर मजबूर किया गया यह भी सहायक सन्धि थीं
सिंधिया:- सिंधिया को पराजित कर 1803 ई0 में सुरजी अरजनगाँव की सन्धि करने पर मजबूर किया गया यह भी सहायक सन्धि थी।
होल्कर:- होल्कर को भी अंग्रेज सेनापति लार्डलेक ने पराजित किया और उसे राजपुर घाट की सन्धि करने के लिए विवश किया गया यह सहायक सन्धि नही थी।
तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध (1816-1818):- पेशवा द्वारा सहायक सन्धि किये जाने के बाद उसे अपनी गद्दी का एहसास हुआ अन्य मराठा सरदारों को भी अपनी गद्दी का एहसास था। गर्वनर जनरल लार्ड हेसिटंग्स के द्वारा पिंडारियों के विरूद्ध अभियान से मराठों के प्रभुत्त को चुनौती मिली फलस्वरूप दोनों पक्ष युद्ध के नजदीक पहुँच गये। सर्वप्रथम बाजीराव द्वितीय से 1817 ई0 में पूना की सन्धि की गई। भोंसले से नागपुर की संधि। सिंधिया से ग्वालियर की संधि और होल्कर से 1818 ई0 में मन्दसौर की सन्धि की गई। अन्तिम रूप से पेशवा को कोरे गाँव और अष्टी की लड़ाइयों में पराजित किया गया उसने आत्म समर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने पेशवा का पद समाप्त कर एक छोटा सा राज्य सतारा बना दिया। बाजीराव द्वितीय को पेंशन देकर कानपुर के निकट बिठूर में रहने के लिए भेज दिया गया।
शिवाजी के समय में मराठा प्रशासन अत्यधिक केन्द्रीयकृत था जबकि पेशवाओं के समय में यह एक ढीला-ढाला राज्य संघ हो गया। इस प्रशासन में प्रमुख वर्गों की स्थिति निम्नलिखित थी-
1. छत्रपति:-मराठा राज्य के पहले छत्रपति शिवा जी थे उनके समय में अष्ट प्रधान की नियुक्ति की गई दूसरे छत्रपति शम्भा जी के समय में अष्ट-प्रधान का विघटन हो गया। तीसरे छत्रपति राजा राम के समय में प्रतिनिधि की नियुक्ति होने से अब अष्ट प्रधान की जगह नौ प्रधान हो गये। पांचवे छत्रपति शाहू के समय में पेशवा का पद आनुवांशिक हो गया जबकि छठे छत्रपति राजाराम द्वितीय ने संगोला की सन्धि से छत्रपति की समस्त शक्ति पेशवाओं को स्थानानतरित कर दी।
2. पेशवा:- सातवें पेशवा बालाजी विश्वनाथ के समय से पेशवा का पद आनुवंशिक हो गया जबकि बालाजी बाजीराव के समय से उसे छत्रपति के अधिकार भी मिल गये।
पेशवा का सचिवालय
पूना में पेशवा का सचिवालय था जिसे हजूर दफ्तर कहा जाता था जबकि एलबरीज दफ्तर सभी प्रकार के लेखों से सम्बन्धित था। आय-व्यय से सम्बन्धित दफ्तर को चातले दफ्तर कहा जाता था। इसका प्रमुख अधिकारी फणनवीस होता था।
प्रान्तीय प्रशासन
प्रान्त के सूबा कहा जाता था यह सर-सूबेदार के अधीन होता था।
जिला प्रशासन:- जिले को तर्फ अथवा परगना या महल कहा गया है। इसका प्रमुख अधिकारी मामलतदार एवं कामाविस्तार होता था। मामलतदार कर निर्धारण का अधिकारी था जबकि काम विसदार चैथ वसूलता था। इन अधिकारियों पर नियन्त्रण देशमुख या देश पाण्डे करते थे। इन दोनों पर नियंत्रण दरखदार का होता थां गुमासता सरदेशमुखी वसूल करता था।
नगर प्रशासन:- नगर के मुख्य अधिकारी को कोतवाल कहा जाता था।
ग्राम प्रशासन (पाटिल अथवा पटेल):- यह ग्राम का मुख्य अधिकारी था। भू-राजस्व भी यही वसूल करता था।
कुलकर्णी:- पटेल के नीचे ग्राम की भूमि का लेखा-जोखा रखता था।
चैगुले:- कुलकर्णी का सहायक
बारह बलुटे:– शिल्पी
बारह अलुटे:– ये सेवक थे।
चैथ का विभाजन
पेशवाओं के समय में चैथ का स्पष्ट रूप से विभाजन कर दिया गया था जो निम्नलिखित प्रकार था-
मोकास:-66% भाग मराठा घुड़सवार रखने के लिए।
बबती:-1/4 या 25%भाग राजा के लिए।
सहोत्रा:-6%पन्त सचिव के लिए।
नाडगुड़ा:-3%राजा की इच्छा पर (दान आदि)।

Share

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *