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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का द्वितीय चरणः 1905-13

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का द्वितीय चरणः 1905-13

राष्ट्रीय आंदोलन में उग्रवाद का उद्भव-

कांग्रेस की स्थापना के कुछ वर्षों बाद ही उदारवादियों की नीतियों की आलोचना आरंभ हो गई थी। अरविंद घोष द्वारा उदारवादी राजनीति की क्रमबद्ध आलोचना उनके एक पेम्फलेट ’न्यू लैम्प्स फाॅर ओल्ड’ में की गई। लाला लाजपतराय ने कांग्रेस के किसी के अधिवेशन को ’तीन दिनों का तमाशा’ कहा। ऐसा कहा जाता है कि लाला लाजपत राय ने 1893-1900 ई0 के बीच कांग्रेस के किसी भी अधिवेशन में भाग नहीं लिया था। समाजवादी इतिहास लेखन में उग्रवादी विचारधारा के उद्भव को कम महत्व देते हुए इसे उदारवादी विचारधारा के साथ प्रतिस्पर्धा का प्रतिफल बताया गया है। यद्यपि हम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते, लेकिन इसे महत्वपूर्ण कारण के रूप में नहीं बताया जा सकता। वस्तुतः उग्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे-

  •  बढ़ती हुई मुद्रास्फीति और गहराता हुआ आर्थिक संकट
  •  गरीबी, ऋणग्रस्तता तथा बढ़ती हुई बेरोजगारी
  •  अकालों की बारम्बारता
  •  प्लेग आदि महामारियों का फैलना
  •  विभेदकारी ब्रिटिश नस्लवादी नीतियों के विरूद्ध प्रतिक्रिया
  •  अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में इथोपिया द्वारा इटली का पराजित होना (1896 ई0) तथा जापान द्वारा रूस का पराजित होना (1904-05 ई0

उग्रवादियों का राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान

उग्रवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सामाजिक आधार में व्यापकता आई। इसमें सभी वर्गों के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस अब उच्च-मध्य वर्ग के साथ-साथ निम्न-मध्य वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करने लगी। कांग्रेस के स्वरूप में भी परिवर्तन आया क्योंकि अब यह अनुनय-विनय की राजनीति से ऊपर उठकर आंदोलन की ओर अग्रसर हुई। उग्रवादी राजनीति के कार्यक्रमों की बुनियाद पर ही परवर्ती गांधीवादी कार्यक्रमों की शुरूआत हुई।

 उग्रवाद की सीमाएँ

  • उग्रवादी आंदोलन को किसानों का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने प्रगतिशील कृषि कार्यक्रम को नहीं अपनाया था। इसके परिणामस्वरूप यह जन-आंदोलन का रूप धारण नहीं कर सका।
  •   प्रगतिशील कृषि कार्यक्रम की अवहेलना करने तािा इसके बदले आम लोगों को आंदोलन से जोड़ने के लिए धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेने के परिणामस्वरूप इसने अनजाने में सांप्रदायियक चेतना को प्रोत्साहन दिया।

 उदारवादी और उग्रवादी राजनीति में मतभेद के महत्वपूर्ण बिंदु

  •   सामाजिक संरचना – उदारवादी नेताओं का संबंध एक वर्ग विशेष से था अर्थात् यह सभी उच्च मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। अभिजात्यवादी दृष्टिकोण होने के कारण देश की जनता से इनका प्रत्यक्ष संवाद नहीं था। ये सभी अपने-अपने पेशों में सफल थे और वर्ष में कुछ ही दिनों के लिए एकत्रित होते थे। उग्रवादी निम्न मध्यवर्ग का नेतृत्व करते थे तथा उदारवादियों के विपरीत इनकी दृष्टि वंचित वर्गों के उत्थान के लिए प्रयास करने की थी।
  •   राजनीतिक विरोध के साधन – इस मुद्दे पर उदारवादियों एवं उग्रवादियों के बीच मतैक्य नही था। उदारवादियों द्वारा अपनाए गए साधनों को उग्रवादी राजनीतिक भिक्षावृत्ति ;च्वसपजपबंस ठमहहंतलद्ध की संज्ञा देते थे। उग्रवादी प्रार्थना, प्रतिवेदन तथा स्मरण-पत्र देने के स्थान पर निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति पर बल देते थे। निष्क्रिय प्रतिरोध के अंतर्गत ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार, ब्रिटिश संसस्थाओं का बहिष्कार इत्यादि शामिल थे।
  •   वैचारिक मतभेद -. उदारवादियों एवं उग्रवादियों के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण में पर्याप्त भिन्नता थी। जहाँ उदारवादी पाश्चात्य परंपरा से अत्यधिक प्रभावित थे, वहीं उग्रवादी ब्रिटिश संविधानवाद की परंपरा में विश्वास नहीं रखते थे तथा भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के प्रबल समर्थक थे। वे ब्रिटिश सरकार से की गई अपीलों को राष्ट्रीय अपमानकी संज्ञा देते थे। उग्रवादियों ने प्राचीन भारत के यौधेय एवं लिच्छवी गणराज्यों का उदाहरण देकर भारत में गणतंत्र की प्राचीन परंपरा को सिद्ध करना चाहा। बाल गंगाधर तिलक ने उग्रवाद की मशाल को प्रज्वलित किया तथा राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण हेतु रूढ़िवादी तत्वों का सहारा लिया। तिलक ने ही सर्वप्रथम स्वराज, स्वदेशी और बहिष्कार का नारा दिया। उन्होंने 1893 ई0 में ’गणपति उत्सव’ तथा 1895 ई0 में ’शिवाजी उत्सव’ की शुरूआत की।
  •   व्यक्तित्वों की टकराहट – उग्रवादी एवं उदारवादी गुटों के बीच मतभेद को बढ़ाने में व्यक्तित्वों की टकराहट भी एक अन्य प्रमुख कारण था। उदाहरण के लिए, जी.आर. आगरकर जो पहले तिलक के शिष्य थे, आगे चलकर गोखले-मेहता गुट में चले गए। कालांतर में यह मुद्दा दोनों गुटों के बीच तनाव का कारण बना।

1905 ई0 में बंगाल विभाजन ने उग्रवादी कार्यक्रम को एक नई दिशा प्रदान की। 1905 ई0 से पूर्व कर्जन की प्रतिगामी नीतियों ने बहुत हद तक स्वदेशी आंदोलन को प्रेरित किया। उसके द्वारा लाए गए कई अलोकप्रिय अधिनियमों, यथा-कलकत्ता काॅरपोरेशन एक्ट, कलकत्ता यूनिवर्सिटी एक्ट, आॅफीशियल सीक्रेट्स एक्ट इत्यादि से देश में एक प्रकार का असंतोष उमड़ रहा था। बंगाल विभाजन की घोषणा ने आग में घी का काम किया। उदारवादियों एवं उग्रवादियों के बीच बंगाल विभाजन की घोषणा के मध्य ही मतभेद उभरने लगे, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस का सूरत विभाजन हुआ। यह मतभेद दो मुद्दों पर आधारित था। एक तरफ, उदारवादी यह मानते थे कि बंगाल विभाजन की समस्या केवल बंगाल की समस्या थी, अतः स्वदेशी आंदोलन को बंगाल तक ही सीमित होना चाहिए। दूसरी तरफ, उग्रवादियों के दृष्टिकोण में स्वदेशी आंदोलन का विस्तार बंगाल से बाहर भी होना चाहिए। उदारवादी केवल ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार तक ही सीमित रहना चाहते थे, जबकि उग्रवादी बहिष्कार की नीति को अन्य क्षेत्रों में भी लागू करना चाहते थे।

कांग्रेस के 1906 ई0 के कलकत्ता अधिवेशन में उग्रवादियों ने अपने अध्यक्ष को स्थापित करना चाहा, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई। उदारवादियों ने अध्यक्ष के रूप में दादाभाई नौरोजी का नाम प्रस्तावित कर दिया। तथापित, उग्रवादियों के दबाव में चार प्रस्ताव-स्वराज, स्वदेशी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा पारित हो गए। अगला अधिवेशन (1907 ई.) नागपुर में प्रस्तावित था जो कि उग्रवादियों का गढ़ माना जाता था। इसीलिए अंतिम समय में गोखले-मेहता गुट ने अधिवेशन हेतु सूरत को चुन लिया। उग्रवादियों ने तिलक को अध्यक्ष के रूप में स्थापित करना चाहा, किंतु उदारवादियों ने रासबिहारी घोष को अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित कर दिया। अंत में इसी मद्दे पर मतभेद उभरा जो 1907 ई. के सूरत के विभाजन के रूप में प्रतिफलित हुआ।

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