गुप्तोत्तर काल (Submit Gupta Age)

गुप्तोत्तर काल (Post Gupta Age)

  छठी शताब्दी के मध्य अर्थात् 550 ई0 के लगभग गुप्त साम्राज्य के विखंडन के बाद एक बार पुनः भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विकेन्द्रीकरण और विभाजन की प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो उठीं। इस काल में अनेक सामंतों एवं शासकों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और स्वतंत्र राजवंशों की स्थापना की। हर्षवर्द्धन के उदय होने तक उत्तरी तथा पश्चिमी भारत की राजनीति में अनेक छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे-
  1. बल्लभी के मैत्रक,
  2. पंजाब के हूण
  3. मालवा का यशोधर्मन
  4. मगध और मालवा के उत्तरगुप्त
  5. कन्नौज के मौखरि

बल्लभी का मैत्रक वंश

    इस वंश की स्थापना भट्टार्क नामक व्यक्ति ने की जो गुप्तकाल में एक सैनिक पदाधिकारी था। पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक भट्टार्क के उत्तराधिकारियों ने सौराष्ट्र (काठियावाड़) में शक्तिशाली राज्य स्थापित करने में सफलता पाई। भट्टार्क के बाद धरसेन शासक हुआ तथा द्रोणसिंह इस वंश का तीसरा शासक हुआ। द्रोणसिंह के बाद उसका भाई ध्रुवसेन राजा बना। मैत्रक वंशीय राजा बौद्ध धर्म के अनुयायी थे तथा उन्होंने बौद्ध विहारों को पर्याप्त दान दिया। इस समय बल्लभी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ एक विश्वविद्यालय था जिसकी पश्चिमी भारत में वही प्रसिद्धि थी जो पूर्वी भारत में नालंदा विश्वविद्यालय की थी। चीनी यात्री इत्सिंग, जो सातवीं शताब्दी में आए थे, ने इस शिक्षा केन्द्र की प्रशंसा की है। शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र होने के साथ-साथ बल्लभी व्यापार-वाणिज्य का भी केन्द्र था।

पंजाब के हूण

    हूण एक खानाबदोश और बर्बर जाति थी जो मध्य एशिया में निवास करती थी। हूणों का पहला भारतीय आक्रमण गुप्त शासक स्कंदगुप्त के शासनकाल में हुआ। वे स्कंदगुप्त के हाथों पराजित हुए और उनका अभियान असफल रहा। हूणों के इस आक्रमण का देश के ऊपर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा किन्तु गुप्त साम्राज्य के पतन में इसने परोक्ष रूप से भूमिका निभाई। स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने गंगा-घाटी पर पुनः आक्रमण किया। मध्य भारत के एरण नामक स्थान से प्राप्त तोरमाण के लेख से इस बात की जानकारी मिलती है कि धन्यविष्णु उसके शासनकाल में उसका सामंत था। जैन ग्रंथ कुवलयमाला से जानकारी मिलती है कि उसकी राजधानी चन्द्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर स्थित पवैया में थी। तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने पवैया, साकल (स्याल कोट), एरण, मालवा आदि में अपनी सत्ता स्थापित की। तोरमाण ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने पुत्र मिहिरकुल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। मिहिरकुल एक क्रूर और अत्याचारी शासक था। ह्नेनसांग के अनुसार उसकी राजधानी साकल थी। ग्वालियर लेख में उसे महान पराक्रमी और ’पृथ्वी का स्वामी’ कहा गया है। 530 ई0 के आस-पास मिहिरकुल यशोधर्मन द्वारा पराजित हुआ। यह मिहिरकुल की अंतिम पराजय थी और और इसके उपरांत हूणों की शक्ति समाप्त हो गई। मिहिरकुल शैव मतानुयायी तथा बौद्धों का शत्रु था। कल्हण के अनुसार श्रीनगर में मिहिरकुल ने एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।

मालवा का यशोधर्मन

    मन्दसौर प्रशस्ति में यशोधर्मन को उत्तर-भारत के चक्रवर्ती शासक के रूप में बताया गया है। यशोधर्मन द्वारा हूणों की पराजय उसकी महानतम उपलब्धियों में से एक थी। संभवतः 535 ई0 तक यशोधर्मन का शासन समाप्त हो गया।

मगध और मालवा के उत्तरगुप्त

    गुप्त राजवंश के विघटन के बाद मगध और मालवा में एक नये राजवंश ने लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। गुप्त वंश से अलग करने के लिए इसे परवर्ती अथवा उत्तर गुप्तवंश कहा जाता है। उत्तर गुप्त वंश की स्थापना कृष्णगुप्त के बाद हर्षगुप्त, जीवितगुप्त, कुमारगुप्त, दामोदर गुप्त, महासेनगुप्त, माधवगुप्त, आदित्यसेन आदि कई शासक इस वंश में हुए।
  • उत्तरगुप्त वंश के शासकों ने गुप्त साम्राज्य की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं का अनुसरण किया।
  • मन्दसौर से जानकारी मिलती है कि आदित्यसेन ने तीन अश्वमेध यज्ञ किये।
  • आदित्यसेन के शासनकाल में चीनी राजदूत वांग-हुएन-त्से (लगभग 655-675 ई.) ने दो बार भारत की यात्रा की।

कन्नौज का मौखरि वंश

    उत्तरगुप्त वंश के समान मौखरि भी गुप्त साम्राज्य के सामंत थे तथा गुप्त साम्राज्य के निर्बल होने पर उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। मौखरि के समय में मगध के स्थान पर कन्नौज राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया। बाणभट्ट हर्षचरित से हमें इसके विषय में जानकारी मिलती है। मौखरि वंश का प्रारम्भिक शासक हरिवर्मा था। हरिवर्मा के बाद उसका पुत्र आदित्यवर्मा राजा हुआ। इसके बाद ईश्वरर्मा शासक हुआ, जिसे जौनपुर लेख में ’राजाओं में सिंह के समान’ बताया गया है। इन तीनों शासकों ने ’महाराज’ की उपाधि धारण की जो उनकी सामन्ती स्थिति को दर्शाता है। ईश्वरवर्मा के पश्चात् उसका पुत्र ईशानवर्मा शासक हुआ, जिसने मौखरियों को सामन्त स्थिति से स्वतंत्र स्थिति में लाने का काम किया। ईशानवर्मा के बाद सर्ववर्मा मौखरि वंश का शासक हुआ। सर्ववर्मा ही प्रथम शासक था जिसने मगध की मौखरि आधिपत्य के अन्तर्गत लाया। सर्ववर्मा के बाद अवन्तिवर्मा शासक बना तथा इसी के समय में थानेश्वर के पुष्यभूति वंश के साथ मौखरि वंश का वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ। अवन्तिवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी ग्रहवर्मा का विवाह थानेश्वर शासक प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री राज्यश्री के साथ संपन्न हुआ था। ग्रहवर्मा की मृत्यु के बाद मौखरि वंश की शक्ति क्षीण होती चली गयी।

थानेश्वर का पुष्यभूति (वर्द्धन) वंश

गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत के राजवंशों में थानेश्वर के पुष्यभूति वंश के शासक हर्षवर्धन ने धीरे-धीरे अपने समकालीन सभी सामन्तों पर विजय पाई और उत्तर भारत का सार्वभौमिक शासक बना। प्रारम्भिक जीवन एवं राजनीति में उदय (Early Life and Emergence in Politics) : हर्ष और उसके राजवंश के विषय में बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित, ह्नेनसांग के संस्मरण, अभिलेख एवं सिक्कों द्वारा ज्ञात होता हैं। बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि थानेश्वर (वर्तमान हरियाणा) में पुष्यभूति नामक राजा ने इस वंश की स्थापना की जिसके नाम पर इस वंश को पुष्यभूति वंश के नाम से जाना गया। प्रभाकरवर्धन इस वंश के प्रथम स्वतंत्र शासक थे। प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र थे-राज्यवर्धन एवं हर्षवर्धन। प्रभाकरवर्धन ने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मा के साथ किया था।604 ईस्वी के लगभग थानेश्वर को पश्चिम दिशा से हूणों के आक्रमण का खतरा उत्पन्न हुआ, जिसे दूर करने के लिए राज्यवर्धन थानेश्वर का शासक बना। उसी समय मालवा के राजा देवगुप्त ने बंगाल के गौड़ शासक के सहयोग से कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मा की हत्या कर दी और उसकी पत्नी राज्यश्री को बन्दी बना लिया। राज्यश्री की इस अवस्था की सूचना पाकर राज्यवर्धन ने बदला लेने का संकल्प लिया और सेना के साथ युद्ध अभियान पर निकल पड़ा। मालवा के शासक देवगुप्त को उसने पराजित कर दिया परन्तु गौड़ शासक शशांक ने राज्यवर्धन की छल  पूर्वक हत्या कर दी। राज्यवर्धन की हत्या के उपरान्त हर्ष ने शशांक से बदला लेने की प्रतिज्ञा के साथ 606 ई0 में थानेश्वर का राजा बना। उसने शशांक से बदला लेने के लिए अभियान प्रारम्भ किया तभी उसे सूचना मिली कि उसकी बहन राज्यश्री कैद से निकलकर विंध्य के जंगलों में चली गई। एक बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र के सहयोग से राज्यश्री को खोज लिया, जब वह सती होने जा रही थी। इसकी कोई सूचना नहीं मिलती कि हर्ष का शशांक के साथ युद्ध हुआ था, किन्तु हर्ष अपनी बहन राज्यश्री की जान बचाने में सफल रहे। राज्यश्री जो अपने पति के राज्य कन्नौज का उत्तराधिकारिणी थी, हर्ष की सहायता से शासन करने लगी। वस्तुतः वास्तविकता यह है कि हर्ष ने स्वयं कन्नौज का शासन करना आरम्भ कर दिया। ह्नेनसांग के विवरण में हर्ष और उसके पूर्व के राजाओं को कन्नौज का शासक बताया गया है।

हर्ष का शासनकाल(Harsha’s Reign)

हर्ष ने न केवल गौड़ शासक शशांक से बदला लिया बल्कि अपने सामथ्र्य से उत्तरी भारत के अन्य राजाओं को भी अपने अधीन किया। ह्नेनसांग के संस्मरण में उल्लिखित है कि हर्ष ने उत्तरी भारत के पाँच राज्यों को अपने अधीन किया, सम्भवतः ये पाँच राज्य पंजाब, कन्नौज, गौड़ या बंगाल, मिथिला और उड़ीसा थे। पश्चिम में उसने बल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर शत्रुता समाप्त की और एक शक्तिशाली संबंध बनाया। ह्नेनसांग के संस्मरण के अनुसार हर्षवर्धन ने कई राज्यों को विजित किया किन्तु वह चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय पर विजय नहीं प्राप्त कर सका। हर्ष का चीनी शासकों के साथ कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध था, अपने समकालीन चीनी सम्राट ती-आंग के दरबार में हर्ष ने तीन दूत मण्डल भेजे थे। हर्ष के शासन काल में चीनी यात्री ह्नेनसांग भारत आया था। वह 629 ईस्वी में चीन से चला और भ्रमण करते हुए भारत आया। यहाँ वह लम्बी अवधि तक 645 ई0 तक रहा। वह भारत के नालंदा महाविद्यालय में पढ़ने और बौद्ध ग्रन्थ ले जाने आया था। हर्ष के दरबार में वह कई वर्षों तक रहा। हर्ष ने कई वर्षों तक शासन किया और लगभग 647 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई।

हर्ष कालीन प्रशासन(Harsh’s Administrations)

हर्ष के शासनकाल तथा समाज की जानकारी बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित और चीनी यात्री ह्नेनसांग के संस्मरण द्वारा मिलती है। ह्नेनसांग ने हर्ष के दरबार और तत्कालीन समाज का सजीव वर्णन किया है।, उसका विवरण उसके पूर्ववर्ती चीनी यात्री फाह्यान से कहीं अधिक वैज्ञानिक और विश्वसनीय है। हर्ष के काल में पाटलिपुत्र और वैशाली नगर अवसान की स्थिति में थे, जिसका कारण व्यापार में गिरावट, मुद्रा व्यवस्था की दुर्लभता और अधिकारियों एवं सैनिकों को नकद वेतन के स्थान पर भूमि अनुदान देना था। हर्ष के शासन काल में ही सामन्तवाद के तत्व अत्यधिक मजबूत हुए। हर्ष का राज्य क्षेत्र कश्मीर को छोड़कर पूरे उत्तर भारत में था। उसके राज्य में बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के आधुनिक क्षेत्र सम्मिलित थे। हर्ष ने अधिकारियों के वेतन के स्थान पर जागीर देने की प्रथा प्रारम्भ की, इसी कारण हर्ष के सिक्के अधिक नहीं मिलते, क्योंकि उसके काल में मुद्रा व्यवस्था का अवसान प्रारम्भ हो गया था। राज्य द्वारा पुरोहितों को विशेष सेवाएँ देने के लिए भूमि दान की परवर्ती परम्परा निरन्तर चलती रही और बढ़ी तथा भूमि दान की इसी परम्परा ने सामन्तवाद को मजबूत किया। ह्नेनसांग ने अपने संस्मरण में लिखा है कि राजकीय आय को चार भागों में बाँट दिया जाता था-एक भाग राज्य को व्यय के लिए, दूसरा भाग विद्वानों को देने के लिए, तीसरा भाग अधिकारियों और अन्य व्यवस्थाओं के लिए तथा चैथा भाग धार्मिक प्रयोजनों में प्रयोग किया जाता था। ह्नेनसांग के विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि हर्ष के राज्य में कानून व्यवस्था अच्छी नहीं थी। ह्नेनसांग के अनुसार हर्ष के राज्य में अपराध के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था। हर्ष के पास सम्भवतः विशाल सेना थी, जो उसे युद्ध के समय अपने सामन्तों के सहयोग से प्राप्त थी, सम्भवतः प्रत्येक सामन्त उसे निश्चित मात्रा में घोड़े और पैदल सैनिक देता था, जिससे उसने विशाल सेना तैयार की थी। हर्ष का प्रशासन अधिक सामंतिक और विकेन्द्रीकृत था। राजा की सहायता के लिए, मंत्रिपरिषद का गठन हुआ था। मंत्री को अमात्य या सचिव कहा जाता था। अधीन रहने वाले शासकों को महाजन अथवा महासामंत कहा जाता था। हर्ष प्रत्येक दिन को कार्यों के हिसाब से बाँट देता था। एक भाग में प्रशासन से संबंधित कार्य, एक भाग में धार्मिक कार्य और अन्य में व्यक्तिगत कार्य करता था।

हर्ष और बौद्ध धर्म (Harsha And Buddhism) 

ह्नेनसांग के अनुसार हर्ष कट्टर बौद्ध था, जबकि बाँसखेड़ा एवं मधुवन के ताम्रपत्राभिलेख उसे शैव बताते हैं। हर्ष, महायान बौद्धमतानुयायी था। हर्ष ने कन्नौज तथा प्रयाग में बौद्ध सभाओं का आयोजन किया था प्रयाग सभा को महामोक्ष परिषद कहा जाता था। यह सभा हर पाँच वर्ष पर आयोजित होती थी। कन्नौज में हवेनसांग की अध्यक्षता में सभा आयोजित हुई, जिसमें ब्राह्मणों ने बहुत उपद्रव किया था, सम्भवतः तभी हर्ष ने कुछ ब्राह्मणों को दण्डित किया था इसी कारण ह्नेनसांग ने उसे कट्टर बौद्ध कहा। प्रयाग में आयोजित छठें महामोक्ष परिषद में ह्नेनसांग की उपस्थिति में बुद्ध, सूर्य और शिव की आराधना हुई। सभा के अन्त में हर्ष ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर दी, अपने पहने हुए वस्त्र भी दान कर दिए और अपनी बहन राज्यश्री से माँगकर वस्त्र पहनें। ह्नेनसांग ने हर्ष की अत्यन्त प्रशंसा की है। हर्ष के काल में नालंदा महाविहार शिक्षण का महान केन्द्र था। देश-विदेश से बौद्ध धर्मानुयायी और बौद्ध भिक्षु यहाँ शिक्षा प्राप्त करने आते थे। नालंदा में बौद्ध धर्म की महायान शाखा का बौद्ध दर्शन पढ़ाया जाता था। नालन्दा के टीलों की खुदाई से प्राप्त अवशेष, इमारतों के शानदान होने की गवाही देते हैं, हालाँकि अभी पूरे टीले की खुदाई नहीं हुई है।
विविध तथ्य
  • हर्ष ने शिलादित्य एवं त्रतापशील की उपाधि धारण की थी।
  • बाणभट्ट तथा मयूर हर्ष के दरबारी कवि थे।
  • हर्ष सिर्फ विद्वानों का आश्रयदाता ही नहीं वरन स्वयं भी विद्वान था, उसने तीन नाटकों-’प्रियदर्शिका’, ’रत्नावली और ’नागानन्द’ की भी रचना की थी।
  • दक्षिण भारतीय अभिलेखों में हर्ष को ’सकलोतरापथनाथ’ कहा गया है।
  • हर्षचरित के अनुसार नेपाल एवं कश्मीर पर भी हर्ष का शासन था।
  • हर्ष के काल में मथुरा सूती वस्त्रों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था।
  • ह्नेनसांग के अनुसार हर्ष के शासनकाल में गौड़ शासक शशांक, (शैव मतावलम्बी) ने गया में स्थित बोधिवृक्ष को कटवा कर गंगा में फेंकवा दिया था।

गुप्तोत्तरकालीन सामाजिक स्थिति

गुप्त युग की समृद्धि और प्रतिष्ठा का अवसान गुप्तोत्तर काल में होने लगा था। इस काल का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन, जिसने समाज के हर भाग को प्रभावित किया, वह था बड़े पैमाने पर दिया जाने वाला भूमिदान, सामंतवादी व्यवस्था का उत्कर्ष इसी के कारण हुआ। गुप्त काल में उन्नत व्यापार-वाणिज्य का रोम साम्राज्य के विनाश के कारण अवसान हो गया, नगर नष्ट हो गए और गुप्तोत्तर काल में कृषि मूल अर्थव्यवस्था प्रारम्भ हो गई। अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि होने के कारण गाँव पर जनसंख्या बोझ बढ़ा। वैश्यों का शूद्रों के स्तर पर मूल्यांकन तथा शूद्रों का कृषकों के रूप में परिवर्तन हुआ। वर्ण व्यवस्था के चारों वर्णों का आधार जन्म तथा नियम और कठोर हुए। ब्राह्मण वर्ग सबसे श्रेष्ठ और पवित्र माना जाता था, उनका मुख्य कार्य अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ करवाना और दान प्राप्त करना था। गुप्तोत्तर काल के अव्यवस्था तथा वाह्य आक्रमणों से उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल तथा आर्थिक विषमताओं के कारण ब्राह्मण वर्ण अन्य व्यवसाय अपनाने के लिए बाध्य हुए। इस काल में राजपूतों का उदय हुआ, जिन्होंने प्राचीन वर्ण क्षत्रिय में स्थान पाया। इस काल में वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई, व्यापार-वाणिज्य के नष्ट होने के कारण वे कृषि करने को बाध्य हुए, जिस कारण उन्हें मनु और बौधायन धर्मसूत्र में शूद्रों के समकक्ष माना। इस काल में वैश्य एवं शूद्रों को वेदों के अध्ययन और सुनने की अनुमति नहीं थी। यदि वे ऐसा करते थे तो उनके लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था। इस काल में वर्ण संकर जातियों की संख्या अत्यन्त बढ़ गई, जो अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी। इन्हें वर्ण व्यवस्था में स्थान नहीं दिया गया तथा इन्हें अन्त्यज कहा गया। इस काल में महिलाओं की स्थिति में अत्यन्त गिरावट आई। कृषि-मूलक ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कारण स्त्रियों के बाल विवाह होने लगे, जिससे उन्हें शिक्षा के अधिकार से भी वंचित होना पड़ा। यौवनारम्भ से पूर्व विवाह को आदर्श माना गया। बाल विवाह होने के कारण बाल विधवाओं की समस्या और सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा समाज में उत्पन्न हो गई। स्वयं हर्ष की माता यशोमति उसके पिता की मृत्यु के उपरान्त उनके शव के साथ सती हो गई थीं जबकि उसकी बहन राज्यश्री 12 वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई थी और सती होने जा रही थी, जिसे हर्ष ने रोका था। इस काल में विधवाओं के लिए अनेक कठोर नियम बनाये गये जिससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहे। विधवाओं को पुनर्विवाह की मनाही थी जबकि पुरुष को बहुविवाह का अधिकार था। इस काल में पर्दा प्रथा का भी प्रचलन बढ़ा हलाँकि यह कुलीन वर्गों तक सीमित था, श्रमिक महिलाएँ इन नियमों से पृथक थी।

दक्षिण भारत

गुप्तकाल के पतन के बाद (लगभग 550 ई0) भारतीय इतिहास में राजनीतिक गतिविधियों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। मगध जो बिम्बसार के काल से अर्थात् लगभग 1000 वर्ष से सर्वोच्च राज्य के रूप में प्रतिष्ठित था, गुप्तकाल के बाद पृष्ठभूमि में चला गया। मगध ही क्या, आगामी 200 वर्षों में संपूर्ण उत्तर भारत में परिस्थितियाँ इतनी अस्थिर रहीं कि केवल हर्ष को छोड़कर कोई भी महत्वपूर्ण शक्ति उभर कर नहीं आयीं। इसके विपरीत लगभग 550 ई0 से 750 ई0 तक के काल में गतिविधियों का केन्द्र दक्षिण भारत था और इन दो शताब्दियों में दक्षिण भारत में दो राजवंशों के पारस्परिक संघर्ष का काल था। ये दो वंश थे-बादामी या वातापी के चालुक्य और कांची के पल्लव।

चालुक्य वंश

चालुक्य अभिलेखों में इन्हें हारीतिपुत्र एवं मात्यगोत्रीय कहा गया है। कहा जाता है कि यह वंश मूलतः अयोध्या का था तथा चालुक्य शासक अयोध्या को अपने पूर्वजों का मूल निवास करते थे। चालुक्य वंश चार शाखा में विभाजित थे-बादामी या वातापी के चालुक्य वंश, वेंगी के चालुक्य वंश, कल्याणी (पश्चिमी) के चालुक्य वंश तथा अन्हिलवाड़ा (लाट) के चालुक्य (सोलंकी)। वातापी या बादामी के चालुक्य चालुक्यों की मल शाखा ’वातापी’ या ’बादामी’ का राजवंश था। गुप्तकाल के बाद दक्षिण भारत में लगभग 550 ई0 से 750 ई0 में न केवल दक्षिण भारत बल्कि उत्तर भारत की राजनीति को भी वातापी या बादामी के चालुक्यों ने प्रभावित किया। बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास के प्रमाणिक साधन अभिलेख हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है। इसकी भाषा संस्कृत एवं लिपि दक्षिणी ब्राह्मी है। इस लेख की रचना रविकीर्ति ने की थी। यद्यपि मुख्य रूप से इसमें पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन हुआ है।

  पुलकेशिन् प्रथम –

चालुक्य वंश का संस्थापक वैसे तो जयसिंह था, परंतु वातापी या बादामी के आस-पास के क्षेत्रों को मिलाकर एक छोटे राज्य की स्थापना कर चालुक्य वंश की वास्तविक नींव डालने वाला ’पुलकेशिन् प्रथम’ था। उसने वातापी या बादामी को अपनी राजधानी बनाया तथा अश्वमेघ यज्ञ भी किया। उसके पुत्र कीर्तिवर्मन प्रथम ने बनबासी के कदंबों, कोंकण के मौर्याें एवं बेलारी तथा कार्नूलों को युद्ध में पराजित किया। कीर्तिवर्मन का भाई मंगलेश अगला शासक बना तथा इसने कलचुरियों तथा कदंबों को पराजित किया तथा उसका उत्तराधिकारी उसका भतीजा पुलकेशिन द्वितीय बना।

 पुलकेशिन् द्वितीय –

यह चालुक्य वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं योग्य शासक था। इससे संबंधित जानकारी ऐहोल अभिलेख से मिलती है। पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियाँ – पुलकेशिन् ने 609 ई0 से 642 ई0 तक शासन किया। उसके शासन काल में चालुक्य वंश अपनी सर्वोत्कृष्ट अवस्था में पहुँच गया था। प्रारंभ में उसने विद्रोही सामंतों एवं निकटवर्ती राज्यों पर अपनी सत्ता स्थापित की। उसने कदंबों की राजधानी पर अधिकार कर लिया। मैसूर के गंगों को आतंकित किया और उत्तरी कोंकण के मौर्यों को पराजित किया। इसने पल्लवों से वेंगी को छीन लिया और अपने भाई को वहाँ का गर्वनर बना दिया। इसने चोल, केरल और पाण्ड्य शासकों को आत्मसमर्पण करने के लिए विवश किया था। ऐहोल लेख से ज्ञात होता है कि पुलकेशिन् द्वितीय ने लाट, मालव तथा गुर्जर प्रदेशों को भी जीत लिया। लाट राज्य, दक्षिणी गुजरात में स्थित था इसकी राजधानी नौसारी (बड़ौदा, गुजरात) में थी। वहाँ अधिकार करने के बाद पुलकेशिन ने अपने वंश के ही किसी व्यक्ति को लाट प्रदेश का शासक नियुक्त किया। गुर्जर, संभवतः भड़ौंच के गुर्जरों से संबंधित थे, जिनका राज्य किम तथा माही नदियों के बीच स्थित था। इस विजय के फलस्वरूप पुलकेशिन द्वितीय के साम्राज्य की उत्तरी सीमा माही नदी तक जा पहुँची।जिस समय पुलकेशिन द्वितीय दक्षिणापथ में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था, उसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन अनेकों राज्यों को जीतकर अपना साम्राज्य विस्तृत करने में व्यस्त था। हर्षवर्द्धन नर्मदा के दक्षिणी राज्यों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। फलस्वरूप हर्ष और पुलकेशिन् के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई और इस विजय के उपलक्ष्य में पुलकेशिन् द्वितीय ने ’परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। आंध्र के दक्षिण में पल्लवों का शक्तिशाली राज्य था। पल्लव वंश का शासन इस समय महेन्द्रवर्मन प्रथम के हाथों में था। पुलकेशिन् द्वितीय विजय करते हुए पल्लव राजवंश की राजधानी कांञची तक पहुँच गया। उसका महेन्द्रवर्मन् प्रथम के साथ भीषण संघर्ष हुआ। हालाँकि महेन्द्रवर्मन अपनी राजधानी काञची को बचाने में सफल रहा किन्तु उसके राज्य के उत्तरी प्रान्तों पर पुलकेशिन् द्वितीय का अधिकार हो गया। यह युद्ध संभवतः 630 ई0 के लगभग हुआ था। इस विजय के पश्चात् पुलकेशिन् अपनी राजधानी वापस लौट आया। पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने भाई विष्णुवर्द्धन को आंध्रपदेश का गर्वनर बनाकर, शासन करने के लिये भेजा। वहां उसने पूर्वी चालुक्य वंश की स्थापना की तथा लगभग 1070 ई0 तक इस वंश का शासन स्थापित रहा। पुलकेशिन द्वितीय ने पुनः काञची पर आक्रमण करने की योजना बनाई। चालुक्यों के सामन्त, बाणों को, पल्लवों ने अपनी ओर मिला लिया, इस समय पल्लव वंश का शासक नरसिंह वर्मन प्रथम (महेन्द्रवर्मन का पुत्र) था, जो एक शक्तिशाली शासक था। नरसिंहवर्मन प्रथम को इस संघर्ष में लंका के राजकुमार मानवर्मन् से सहायता मिली। अपनी सफलताओं से उत्साहित होकर नरसिंहवर्मन् ने बादामी पर आक्रमण कर उस पर तथा वहाँ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। पुलकेशिन द्वितीय की इसी युद्ध में मृत्यु हो गई तथा नरसिंह वर्मन् ने ’वातापीकोण्ड’ की उपाधि धारण की। पुलकेशिन् द्वितीय ने 610-11 ई0 से 642 ई0 तक शासन किया। पुलकेशिन द्वितीय ने अपने शासन के 36वें वर्ष परसिया के शासक खुसरो द्वितीय के दरबार में एक दूतमण्डल भेजा था, जो अपने साथ एक हाथी, एक पत्र तथा बहुमूल्य उपहार लेकर गया था। फारसी शासक ने भी पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में एक दूतमण्डल भेजा था। पुलकेशिन् द्वितीय के पश्चात् चालुक्य वंश कुछ काल के लिए लुप्त हो गया। पुलकेशिन् द्वितीय के भाई विष्णुवर्धन ने वेंगी के चालुक्य वंश की स्थापना की। पुलकेशिन् के बाद उसका पुत्र विक्रमादित्य प्रथम 654-55 में शासक बना। उसके काल में चोलों, पाण्ड्वों और केरलों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर लिया और विद्रोह किया। विक्रमादित्य ने इन तीनों को समाप्त करने के अलावा पल्लवों के राज्य काञची को भी हस्तगत कर लिया। विक्रमादित्य प्रथम के उत्तराधिकारी विनयादित्य और विजयादित्य भी शक्तिशाली शासक थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों को पुनः पराजित किया। संभवतः अरबों के आक्रमण का प्रतिरोध करके उन्हें दक्षिण गुजरात तक भगा दिया था। उसके पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय को 753 ई0 में उसी के सामंत राष्ट्रकूट वंशीय दन्तिदुर्ग ने पराजित किया। इस प्रकार एक शक्तिशाली राजवंश का अंत हो गया। वातापी या बादामी चालुक्य वंश लगभग 550 से 750 ई0 तक प्रशासनिक केन्द्र बिन्दु बना रहा। इस वंश ने कई शक्तिशाली शासकों को जन्म दिया, जिन्होंने दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तरी भारत पर भी शासन किया और सभी क्षेत्रों में स्थायित्व व विकास किया। कला और प्रशासन के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य

  • कल्याणी के चालुक्य वंश का उदय राष्ट्रकूटों के पतन के पश्चात् हुआ।
  • इसका संस्थापक भीम प्रथम था, किन्तु राजनैतिक इतिहास तैल अथवा तैलप द्वितीय के समय प्रारम्भ होता है। तैलप द्वितीय अपनी राजधानी मान्यखेत में स्थापित की।
  • तैलप द्वितीय का परमार शासक मुंज़ से लम्बा संघर्ष हुआ, इसका उल्लेख साहित्य तथा लेखों से प्राप्त होता है। मेरुतंग कृत प्रबंधचिन्तामणि से जानकारी मिलती है कि तैलप द्वितीय ने मुंज के ऊपर छः बार आक्रमण किया किन्तु प्रत्येक बार पराजित हुआ।
  • सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई0) ने प्रसिद्ध कोप्पम की लड़ाई (1054 ई0) में चोल राजाधिराज की हत्या कर दी थी। पुनः उसने वीर राजेन्द्र चोल को चुनौती दी जिसमें वह पराजित हुआ।
  • सोमेश्वर प्रथम ने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानान्तरित किया।
  • चोल नरेश राजराज ने सोमेश्वर प्रथम को पराजित करके ’विजयेन्द्र’ की उपाधि धारण की।
  • विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1125 ई0) ने चालुक्य विक्रम संवत् चलाया। उसी के दरबार में विक्रमांकदेव चरित का लेखक बिल्हण तथा मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति का टीका) का लेखक विज्ञानेश्वर रहता था। उसने श्री लंका में एक दूत मंडल भी भेजा था।
  • विक्रमादित्य षष्ठ ने विक्रमपुर नामक एक नया नगर बसाया तथा भगवान विष्णु का एक विशाल मंदिर एवं विशाल झील का भी निर्माण करवाया था।
  • सोमेश्वर तृतीय (1126-1138ई0) ने ’मानसोल्लास’ ग्रंथ (शिल्पशास्त्र) की रचना की थी।
  • इस वंश का अंतिम शासक तैल तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ था।
  • कालांतर में कल्याणी का राज्य तीन राज्यों में विभक्त हो गया।
1.    देवगिरि    –    यादव 2.    वारंगल    –    काकतीय वंश 3.    द्वारसमुद्र    –    होयसल वंश

वेंगी के चालुक्य (पूर्वी चालुक्य)

वेंगी का प्राचीन राज्य आधुनिक आंध्र प्रदेश की कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित था। वस्तुतः वेंगी की पहचान गोदावरी जिले में स्थित पेडडुवेगि नामक स्थल से की जाती है। वातापी या बादामी के चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय ने इसे जीतकर अपने भाई विष्णुवर्धन को यहाँ का गर्वनर बनाया था।
  • इस वंश का संस्थापक विष्णुवर्धन था, जिसने वेंगी को राजधानी बनाया।
  • किरातर्जुनियम के लेखक भारवि कुछ दिनों तक विष्णुवर्धन के दरबार में रहे थे।
  • जयसिंह प्रथम ने पृथ्वीबल्लभ, पृथ्वीजयसिंह तथा सर्वसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण की।
  • विष्णुवर्धन द्वितीय ने विषमसिद्धि, मकरध्वज तथा प्रलयादित्य जैसी उपाधियाँ ग्रहण की।
  • विजयादित्य सप्तम वेंगी के चालुकय वंश का अंतिम शासक था।

अन्हिलवाड़ा का चालुक्य (सोलंकी)

  • अन्हिलवाड़ा के चालुक्य को लाट का चालुक्य भी कहा जाता है। भुवड़ प्रथम शासक था।
  • मूलराज प्रथम (941-96 ई0) ने इस वंश को प्रतिष्ठा दिलायी। मूलराज ने अन्हिलवाड़ा को अपनी राजधानी बनाया।
  • भीम प्रथम (1024-1064 ई0) के काल में वास्तुकला एवं तेजपाल ने आबू में दिलवाड़ा का जैन मंदिर बनवाया। इसी के काल में महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर (गुजरात) पर आक्रमण किया था।
  • जयसिंह सिद्धराज के दरबार में जैन विद्वान हेमचंद्र रहते थे।
  • कुमारपाल (1144-71 ई0) ने जैन धर्म को अपनाया तथा विधवाओं की संपत्ति जब्त होने के कानून को समाप्त कर दिया। जीव हिंसा तथा मद्यविक्रय पर भी रोक लगा दी।
  • मूलराज द्वितीय ने मुहम्मदगौरी (1178 ई0) के आक्रमण को विफल कर दिया था।

चालुक्यकालीन प्रशासन

वातापी या बादामी के चालुक्यों ने लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण भारत पर शासन किया। वे मूलतः धर्मनिष्ठ हिन्दू थे और उन्होंने धर्मशास्त्री के अनुसार शासन किया। प्राचीन शास्त्रों में विहित राजतंत्र प्रणाली इस काल में भी सर्वप्रचलित शासन पद्धति थी। चालुक्य कालीन प्रशासन का केन्द्र बिन्दु सम्राट होता था। उन्होंने अश्वमेध, वाजपेय आदि अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया। राजपद वंशानुगत होता था। राजा प्रशासन की सम्पूर्ण समस्याओं में स्वयं रुचि लेता था। युद्ध के समय राजा स्वयं सेना का संचालन करता था तथा इस काल में रानियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी जैसे-कीर्तिवर्मन द्वितीय की महारानी महादेवी उसके साथ रक्तपुर के स्कन्धावार में उपस्थित थी। चालुक्य लेखों में किसी मंत्रिपरिषद का उल्लेख नहीं मिलता है। प्रशासन में मुख्यतः राजपरिवार के सदस्य ही शामिल थे। राजा अपने परिवार के विभिन्न सदस्यों को उनकी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता था। जैसे-पुलकेशिन द्वितीय ने अपने भाई विष्णुवर्धन को वेंगी का गर्वनर नियुक्त किया था। राजा के आदेश प्रायः मौखिक ही होते थे, जिन्हें सचिव लिपिबद्ध करके संबंधित अधिकारियों या व्यक्तियों के पास भेजते थे।
  • सामंत (तत्पादपद्मोपजीवी) अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रतापूर्वक शासन करते थे। इनकी अलग राजधानी होती थी जहाँ वे अपना दरबार लगाते थे। इनके अपने मंत्री तथा अन्य अधिकारी होते थे।
  • नगर को पट्टण या पुर कहा जाता था। बड़े नगरों में तीन बड़ी-बड़ी सभायें होती थी, जिनमें प्रत्येक को ’महाजन’ कहा जाता था तथा नगर सभाओं की स्थिति निगमों जैसी थी। इन्हें सम्पत्ति का क्रय-विक्रय करने तथा छोटे-मोटे विवादों का निपटारा करने का अधिकार था।
  • राजकुल के सदस्यों को विभिन्न भागों में राज्यपाल नियुक्त किया जाता था।
  • ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। कुछ लेखों में ग्राम को गामुन्ड कहा गया है। विजयादित्य के एक लेख से पता चलता है कि बेन्निपुर ग्राम का शासन महाजन (महत्तर) ही चलाते थे। गाँव के कर्मचारियों को पारिश्रमिक के रूप में कुछ जमीन दी जाती थी।
  • कारीगरों तथा व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ होती थीं जो अपनी आर्थिक स्थिति के कारण काफी महत्वपूर्ण थी।
चालुक्य लेखों से तत्कालीन कर – का भी कुछ संकेत मिलता है। पुलकेशिन द्वितीय के हैदराबार ताम्रपत्र में निधि उपनिधि (निक्षेप), (विलप्त लगान का बंदोबस्त) तथा उपरिकर (अधिभार) का उल्लेख मिला है। सत्याश्रय के नौसारी दानपत्र में उद्रंग (तहबाजारी) तथा परिकर (चुंगी) का उल्लेख हुआ है। इन करों के अलावा विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर भी लिये जाते थे। विशेष अवसरों पर विद्यालय, मंदिर आदि कुछ संस्थाओं के भरण-पोषण के लिए अनाज के रूप में उगाही की जाती थी। कुछ विशेष मौकों पर करों में छूट दिये जाने का वर्णन हुआ है।

चालुक्यकालीन कला

वातापी के चालुक्य शासक शक्तिशाली होने के अतिरिक्त कला के भी महान संरक्षक थे। उन्होंने विष्णु, शिव एवं अन्य देवताओं के सम्मान में मंदिरों के निर्माण कार्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। पाषाण वास्तु शिल्प कला की भी बहुत उन्नति हुई। पत्थरों को बिना गारे और चूने से जोड़ा जाता था। चालुक्यों के तत्वाधान में बौद्धों और ब्राह्मणों ने गुफा मंदिर बनवायें। इन विशाल गुफाओं में पर्याप्त प्रकाश तथा काम करने के लिए आवश्यक सुविधाओं के अभाव में गहरी कटी हुई गुफाओं की दीवारों पर भित्ति चित्र बने हुए हैं। अजंता की सर्वश्रेष्ठ कला कृतियाँ 5वीं शताब्दियों में वाकाटकों तथा चालुक्यों के समय की हैं। अजंता के प्रथम विहारीय विशालकक्ष में एक भित्ति चित्र में पुलकेशिन द्वितीय द्वारा फारस के शिष्टमंडल के भव्य स्वागत को अभिव्यक्त किया गया है। चालुक्यों द्वारा निर्मित बादामी तथा ऐहोल के मंदिर दक्षिण भारतीय शैली के प्रतीक हैं। एलोरा स्थित कैलाश मंदिर का राष्ट्रकूटों ने निर्माण करवाया लेकिन इस मंदिर में यह शैली पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी। चालुक्यों द्वारा निर्मित वातापी का गुफा मंदिर, बौद्ध गुफा मंदिर के अनुरूप है। इसी प्रकार अनेक गुफा मंदिर भी बौद्धों के गुफा मंदिरों के समान ही है। चालुक्यों के मंदिर पत्थरों के बने हैं। मेगुति स्थित शिवमंदिर इस कला का प्रमाण है। इस मंदिर में पुलकेशिन द्वितीय से संबंधित रविकीर्ति द्वारा रचित एक प्रशस्ति भी है। चालुक्यों के समस्त मंदिरों में ऐहोल का विष्णुमंदिर सर्वश्रेष्ठ सुरक्षित मंदिर है। यह मंदिर उड़ते हुए देवताओं की सुंदर मूर्तियों के लिए विख्यात है। पट्टकल स्थित विरुपाक्ष मंदिर में स्तंभों पर आधारित, लोगों के लिए, एक विशाल मंडपम् अथवा सभा भवन भी है। ऐहोल में 70 मंदिरों का निर्माण चालुक्य शासकों ने करवाया था। उनके काल में जैन मतावलम्बियों ने कर्नाटक में कुछ मंदिर का निर्माण करवाया था।

पल्लव राजवंश

पल्लव राजवंश की स्थापना उस समय हुई, जब सातवाहन शक्ति का पतन हो रहा हो और अवसर पाकर उसने अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया। पल्लव वंश का संस्थापक बप्पदेव था। जिसके अधीन आंध्र प्रदेश और तोंडमण्डलम् दोनों थे। मूलतः इनका उदय तीसरी या चैथी शताब्दी में माना गया है। इसकी जानकारी समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से होती है। लगभग छठी शताब्दी के मध्य में पल्लवों की शक्ति का विकास बड़ी शीघ्रता से हुआ। पल्लव शासक, चालुक्य शासकों की भाँति ही अपनी शक्ति स्थापित करना चाहते थे। वस्तुतः काञची के महान् पल्लवों की परम्परा सिंह वर्मन के पुत्र  सिंह विष्णु के समय (575-600 ई0) से प्रारम्भ होती है।   सिंहविष्णु-सिंहविष्णु ने अवनिसिंह की उपाधि धारण की तथा अनेक क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। वैलूरपालैयम् ताम्रपत्र में सिंहविष्णु द्वारा चोलों की पराजय का वर्णन है। काशाक्कुडि़ ताम्रपत्र के अनुसार सिंह विष्णु ने मलय, कलभ्रों, मालव, चोल, पांड्य, सिंहल राजा और केरलों को पराजित किया। इसके समय में पल्लव राज्य कावेरी तक विस्तृत हो चुका था। महेन्द्रवर्मन प्रथम-’मत-विलास’, विचित्र-चित्त और ’गुणभर’ आदि उसकी उपाधि थी। इसके समय में धर्म और साहित्य में काफी प्रगति हुई, परंतु इसी के शासन काल में पल्लव-चालुक्य और पल्लव-पांड्यों के साथ संघर्ष शुरू हुआ, जो लगभग 150 वर्षों तक चला। पल्लवों के अभिलेखों में महेन्द्रवर्मन प्रथम की पुल्ललूर विजय का वर्णन है। नरसिंहवर्मन प्रथम: इसने लगभग 630 से 660 ई0 तक शासन किया। इसके अभिलेखों में इसे ’वातापीकोंड’ कहा गया है। इसने बादामी या वातापी की विजय के पश्चात् ’महामल्ल’ की उपाधि धारण की। नरसिंह वर्मन की लंका-विजय का उल्लेख काशावकुडि़ ताम्रपत्र और महावंश में किया गया है। ह्नेनसांग 641 ई0 में पल्लवों की राजधानी काञची गया और काफी समय तक वहाँ रहा। उसने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि काञची से प्रायः समुद्री जहाज लंका जाते थे और काञचीके निवासी उत्साही, ईमानदार और विद्वान थे।
  • परमेश्वरवर्मन प्रथम ने चालुक्य राजा विक्रमादित्य की सेना को बुरी तरह पराजित किया। परंतु विक्रमादित्य के अभिलेखों में पल्लव राजा परमेश्वर वर्मन की पराजय का वर्णन है।
  • राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय ने पल्लव राजधानी पर आक्रमण करके काञची के दंतिदुर्ग से बहुत भेंट ली।
  • गंग राजाओं के विरूद्ध भी युद्ध हुआ, जिसमें नंदिवर्मन ने गंग राजा श्री पुरुष को पराजित किया।
  • नंदिवर्मन द्वितीय और राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा का बेटा दंतिवर्मन, अपने पिता की मृत्यु के बाद, पल्लव-राज्य का शासक बना।
  • नंदिवर्मन तृतीय ने अमोघवर्ष (राष्ट्रकूट राजा) की बेटी शंखा से विवाह किया था, जिससे उसका एक पुत्र नृपतंगवर्मन हुआ, जो अल्प उम्र में ही राजा बना। बाण विद्याधर इसका सामंत था।
  • पाण्ड्यों के विरूद्ध हो रही लड़ाई में नृपतंग मारा गया। उसके बाद अपराजित राजा बना, जिसने पाण्ड्य शासक को पराजित किया लेकिन चोल राजा आदित्य प्रथम द्वारा वह स्वयं भी पराजित हो गया। अंततः पल्लव राज्य चोल शासकों द्वारा जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया गया।

विविध तथ्य

  • पल्लवकालीन प्रशासन बहुत हद् तक गुप्त और मौर्य सम्राटों की शासन व्यवस्था के समान था।
  • अर्काट, मद्रास, त्रिचनापल्ली और तंजौर आदि क्षेत्रों पर पल्लवों का शासन था।
  • राजा, शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था तथा राजा के उत्तराधिकारी को युवमहाराज कहा जाता था।
  • राजपद को ईश्वरीय और वंशानुगत माना जाता था परंतु सम्राट प्रजा की भलाई करना ही अपना प्रमुख कर्तव्य मानते थे।
  • ग्राम श्रेणियाँ तीन तरह की होती थी-ब्रह्मदेव, अग्रहार, देवदान श्रेणियाँ।
  • ग्राम का मुखिया (ग्रामभोजक), ग्राम सभा और जिला परिषद के मध्य प्रशासन की एक कड़ी होता था।
  • अधिकारी वर्ग-
  1. आरक्षाधिकृत गैल्मिक-सैनिक चैकियों का प्रधान
  2. तैर्तिक-तीर्थस्थानों एवं घाटों का सर्वेक्षणकर्ता एवं कर ;ज्ंगद्ध वसूली करने वाला अधिकारी।
  3. चरन्तक-ये गुप्तचर अधिकारी थे जो सम्राट के लिए आवश्यक सूचनाएँ प्रेषित करते थे।
  4. न्यायालयों को अधिकरण और धर्मासन कहा जाता था।

पल्लवकालीन कला

 सिन्धु सभ्यता कला, मौर्यकला, गुप्तकालीन कला और दक्षिण भारत में पल्लव पूर्व कला विकसित अवस्था में थी किन्तु पल्लवकालीन कला पूरे प्राचीन भारत में अत्यंत उत्कृष्ट अवस्था में प्राप्त हुई है। दक्षिण भारतीय इतिहास में चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव कालीन कला अपनी चरमोत्कर्ष अवस्था में पहुँची। पल्लव शासकों ने कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यही योगदान उनके इतिहास के सांस्कृतिक महत्व का आधार बन गया है। द्रविड़ शैली की स्थापना पल्लव नरेशों के शासन काल में हुई। पल्लव नरेशों ने 6ठीं से 10वीं सदी तक राज्य किया। शक्तिशाली शासक, शासन व्यवस्था के साथ-साथ कला के संरक्षक के रूप में भी जाने जाते हैं। पल्लवकालीन वास्तुकला के उदाहरण पल्लवों की राजधानी काञचीपुर तथा महाबलीपुरम् में पाये गये हैं। कुछ उदाहरण तंजौर प्रदेश तथा पुड्डुकोटाई में भी पाये गये हैं। पल्लवकालीन वास्तुकला को मुख्यतः चार शैलियों में विभक्त किया गया है।  1.    महेन्द्रवर्मन शैली (660 ई0 से 640 ई0)  – इस शैली के मंदिरों को मण्डप कहा गया। इसमें एक स्तंभ युक्त बरामदा तथा अंदर की ओर खोदकर बनाये गये एक या दो कमरे होते थे। इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं-भैरवकोंड, नंदवल्लि का अनंत शयन मंदिर आदि। 2    मामल्ल शैली (640-674 ई0) – नरसिंह वर्मन के शासनकाल में निर्मित मंदिरों की शैली को मामल्ल शैली कहा गया है। इस शैली का प्रमुख केन्द्र-मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) था। इस समय मंदिर दो तरह के बनते थे, पहला मंडप मंदिर (वराहमंडप, महिषमंडप, पंचपाण्डव मंडप) तथा दूसरा रथ मंदिर जो विशाल शिलाखण्डों को काटकर बनाये गये हैं और ये काठ ;ॅववकद्ध निर्मित रथों की अनुकृति मालूम पउत्रते हैं। मामल्ल शैली के रथ ’सप्तपैगोड़ा’ के नाम से विख्यात है, जिनमें द्रोपदी, अर्जुन, भीम, धर्मराज, सहदेव, नकुल आदि हैं। वस्तुतः इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यों से हुआ है। रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। नरसिंह वर्मन के राज्य के अंत के साथ ही इस शैली का भी अंत हो गया। इनके स्थानों पर पाषाण खण्डों की सहायता से स्वतंत्र रूप से निर्मित मंदिरों का प्रादुर्भाव हुआ। 3. राजसिंह शैली (674-800 ई0) -8वीं सदी में विकसित इस शैली में पत्थर एवं ईंटों के मंदिर निर्मित हुए काञची का कैलाश मंदिर, बैकुण्डपेरुमाल मंदिर तथा महाबलिपुरम् के अन्य मंदिर इस शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। समुद्रतट पर स्थित मंदिर की स्थिति असाधारण है। मंदिर का गर्भगृह समुद्र की ओर है किन्तु मंडप तथा अर्धमंडप और आँगन पश्चिम की ओर हैं और साथ ही पश्चिम की ओर दो देवायतन जोड़े गये हैं। इनमें एक मंदिर का छोटा शिखर है। 4.नंदिवर्मन शैली (800-900 ई0) – पाषाण खंडों से बने स्वतंत्र मंदिर शैली के अंतिम चरण में वे मंदिर आते हैं जो नंदिवर्मन और उसके उत्तराधिकारियों के राज्यकाल में निर्मित हुईं हैं। ये मंदिर आकार में छोटे हैं और पूर्ववर्ती मंदिरों की प्रतिकृति मात्र है। इस काल की शैली में काई नवीनता नहीं है, केवल स्तंभों का अधिक विकास हुआ है। इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं-मुक्तेश्वर, मातंगेश्वर (काञचीपुरम्) तथा गुडीमल्लम् का परशुरामेश्वर मंदिर। अंततः 10वीं सदी के अंत तक इन मंदिरों का निर्माण कार्य बंद हो गया। पल्लव वास्तुकला का इतिहास में बहुत महत्व है। बौद्ध, चैत्य, विहारों से विरासत में मिली हुई कला का उन्होंने विकास किया और एक नवीन शैली को जन्म दिया जो कि चोल और पाण्ड्य कला में पूर्ण रूप से विकसित हुई। पल्लव कालीन वास्तुकला के विकास में बिना कुशल अभियांत्रिक के संभव नहीं था। पल्लव कला की विशेषता दक्षिण-पूर्व एशिया में भी पहुँची। यहाँ के विशाल मंदिरों में पल्लव कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता है।

गुप्तोत्तरकालीन प्रमुख मन्दिर

मंदिरो के नाम                  स्थापत्य शैली                     निर्माणकर्ता लिंगराज मंन्दिर                   नागर शैली                             – पुरी का जगन्नाथ मंदिर         नागर शैली                        अनन्तवर्मा कोणार्क का सूर्य मंदिर         नागर शैली                        नरसिंह देव (गंग वंश) खजुराहों के मन्दिर               नागर शैली                       चंदेल शासक कंदारिया महादेव मंदिर        नागर शैली                       धंगदेव (चन्देल वंश) मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर            नागर शैली                                   – दिलवाड़ा के जैन मंदिर        नागर शैली                       राष्ट्रकूट वंश कैलाश मंदिर (एलोरा)          बेसर शैली                       राष्ट्रकूट वंश दशावतार मंदिर (झाँसी)       बेसर शैली                       गुप्तकाल ऐलिफेण्टा के गुहा मंदिर      बेसर शैली                        राष्ट्रकूट वंश मामल्लपुरम् के रथ मंदिर    द्रविड़ शैली                       पल्लव वंश कैलाश मंदिर (काञची)       द्रविड़ शैली                       पल्लव वंश बैकुण्डपेरुमाल मंदिर          द्रविड़ शैली                         – वृहदेश्वर मंदिर (तंजौर)         द्रविड़ शैली                     राजराज चोल गंगैकोण्ड चोलपुरम का मंदिर- द्रविड़ शैली                 राजेन्द्र चोल तिरुमलाई मंदिर                 द्रविड़ शैली                      पाण्ड्य वंशी

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