गांधी युग-रौलट एक्ट,  जलियाँवाला बाग हत्याकांड, खिलाफत आंदोलन

रौलट एक्ट, 1919

अंगेजी शासन के विरूद्ध पनप रहे असंतोष तथा पढ़ती हुई क्रांतिकारी गतिविधियों से प्रभावशाली ढंग से निपटने हेतु लार्ड चेम्सफोर्ड द्वारा किंग्स न्यायपीठ के न्यायाधीश सिडनी रौलट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति का कार्य भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के स्वरूप और प्रसार की जाॅच करना तथा आवश्यक हो तो उनसे प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए विधेयक प्रस्तावित करना था। इसी समिति की सिफारिशों के आधार पर केन्द्रीय विधान परिषद् में दो विधेयक प्रस्तुत किए गए। भारतीय सदस्यों के तीव्र विरोध के परिणामस्वरूप प्रथम विधेयक को निरस्त कर दिया गया, किंतु द्वितीय विधेयक जिसका नाम ’क्रांतिकारी एवं अराजकतावादी अधिनियम’ था, मार्च 1919 में पारित कर दिया गया। इस रौलेट अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार किसी को भी जब तक चाहे बिना मुकदमा चलाये जेल में बंद रख सकती थी। इसलिए इसे बिना वकील, बिना अपील, बिना दलील वाला कानून भी कहा गया।

रौलट विधेयक पेश किए जाने के साथ ही गांधीजी ने अपने सत्याग्रह अभियान को संगठित करने के लिए एक सत्याग्रह सभा की स्थापना की जिसकी अध्यक्षता स्वयं गांधीजी द्वारा की गई। इस सभा के अन्य सदस्यों में जमनालाल दाच बी0जी0 हार्नीमन, शंकरलाल बैंकर तथा उमर सोमानी के नाम उल्लेखनीय है। गांधीजी ने कहा कि ’’यह कानून बिल्कुल अनुचित, स्वतन्त्रता- विरोधी तथा व्यक्ति के मूल अधिकारों की हत्या करने वाला है।’

रौलट कानून के विरोध में हुए सत्याग्रह के दौरान सर्वप्रथम स्वयंसेवकों द्वारा कानून को औपचारिक चुनौती देते हुए गिरफ्तारियाँ दी गई तथा द्वितीय चरण में 6 अप्रैल, 1919 को देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया गया। इसके उपरांत बंबई, अहमदाबाद तथा अन्य नगरों में सार्वजनिक विरोध तथा हिंसा के मार्ग को अपनाया गया। इस आंदोलन के दौरान गांधीजी की गिरफ्तारी कर लिया गया। बाद में बढ़ते जनाक्रोश के चलते उन्हें बंबई ले जाकर रिहा कर दिया गया। इस रौलेट एक्ट विरोधी सत्याग्रह के परिणामस्वरूप कांग्रेस अब राष्ट्रीय संस्था में परिवर्तित हो गई तथा गांधीजी ने नयी विचारधारा व नई रणनीति से इसका नेतृत्व किया।

 जलियाँवाला बाग हत्याकांड: 13 अप्रैल, 1919

जलियाँवाला बाग हत्याकांड का सम्बन्ध रौलेट एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन से था। तत्कालीन पंजाब क्रांतिकारी गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र था। इसके साथ ही युद्धकालीन मंदी, सेना में जबरन भर्ती जैसी नीतियों के कारण वहाँ की जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध का भाव पनप रहा था। रौलट सत्याग्रह के दौरान पंजाब के विभिन्न भागों में हड़तालें तथा हिंसक घटनाएँ हुई। इस आक्रोश का दमन करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने क्रूर कर्रावाइयों को अंजाम दिया। तत्कालीन पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ. डायर एक अत्याचारी और कुख्यात प्रशासक के रूप में प्रसिद्ध था। 9 अप्रैल, 1919 को उसने पंजाब के दो स्थानीय नेताओं डा. सैफुद्दीन किचलू तथा डाॅ0 सत्यपाल की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। इन दोनों नेताओं का सम्बन्ध दिसंबर, 1919 में हाने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की स्वायत्त समिति से था। इन दोनों नेताओं की गिरफ्तारी और ब्रिटिश सरकार की क्रूर नीतियों का विरोध करने हेतु 13 अप्रैल, 1919 (बैसाखी के दिन) को एक शांतिपूर्ण सार्वजनिक सभा का आयोजन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में किया जनरल डायर ने बिना किसी पूर्व सूचना या चेतावनी दिए ही निहत्थी भीड़ पर गोल चलवा दी, जिसमें करीब 1000 लोग मारे गए। सरकारी रिपोर्टानुसार 379 व्यक्ति मारे गए और करीब 1200 व्यक्ति घायल हुए। इस नरसंहार के पश्चात् पंजाब में मार्शल लाॅ लगा दिया गया।

जलियाँवाला बाग नरसंहार के विरोध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार को नाइटहुड  की उपाधि वापस कर दी तथा कांग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष सर शंकरन नायर द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद से त्याग-पत्र दे दिया गया। इस हत्याकांड की जाँच हेतु लाॅर्ड हंटर की अध्यक्षता में एक कमेटी (हंटर कमेटी) गठित की गयी। इस कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार-’’तत्कालीन परिस्थितियों में अमृतसर में मार्शल लाॅ लगाना एवं अनियंत्रित भीड़ पर गोली चलाना आवश्यक था, लेकिन जनरल डायर ने अपने कर्तव्य का निर्वहन भलीभांति नहीं किया तथा भीड़ पर आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग किया। फिर भी उसने ईमानादी से जो उचित समझा वही किया।’’ हत्याकांड के दोषी लोगों को बचाने के लिए सरकार ने हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने से पहले ही इण्डेम्निटी बिल पारित कर दिया था। जनरल डायर को सजा के रूप में नौकरी से बर्खास्त कर इंग्लैण्ड भेज दिया गया, जहाँ ब्रिटेन की संसद में उसकी प्रशंसा में भाषण दिए गए तथा उसे सम्मानपूर्वक सोर्ड आॅफ आॅनर  की उपाधि से विभूषित किया गया।

जलियाँवाला बाग हत्याकांड की जाँच हेतु कांग्रेस द्वारा भी एक जाँच समिति गठित की गई, जिसकी अध्यक्षता मदनमोहन मालवीय द्वारा की गई। कांग्रेस ने हंटर कमीशन की रिपोर्ट को सरकार द्वारा की गई ’निर्लज्ज लीपापोती’  संज्ञा दी। इस समिति के अन्य सदस्यों में महात्मा गांधी, सी.आर.दास, तैय्यबजी तथा जवाहरलाल नेहरू शामिल थे। कांग्रेस ने अपनी रिपोर्ट में जनरल डायर के कार्यों की निंदा की तथा उसके कृत्य को भावनाओं में बहकर उठाया गया कदम बताया।

खिलाफत आंदोलन: 1919-1922

प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार को तुर्की के खिलाफ इस शर्त पर सहायता दी थी कि वे उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। किंतु, युद्ध के पश्चात् ब्रिटिश सरकार अपने वायदे से मुकर गयी। पराजित तुर्की के ओटोमन साम्राज्य का विघटन कर दिया गया तथा सेवर्स की संधि 1920  द्वारा तुर्की के खलीफा जो संपूर्ण इस्लामी जगत का प्रतिनिधित्व करता था, को उसकी सत्ता के प्रयोग से वंचित कर दिया गया। भारतीय मुसलमानों ने ब्रिटेन द्वारा तुर्की के साथ किए जाने वाले इस व्यवहार को विश्वासघात माना। 1920 के आरंभ में भारतीय मुसलमानों ने, ब्रिटेन को तुर्की के प्रति अपनी नीति बदलने के लिए, खिलाफत आंदोलन आरंभ किया। गांधीजी के समर्थन के कारण यह आंदोलन और अधिक शक्तिशाली हो गया।

23 नवम्बर, 1919 को दिल्ली में गांधीजी की अध्यक्षता में ’अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी’ का अधिवेशन हुआ। गांधीजी के सुझावों पर ही स्वदेशी एवं असहयोग की नीति अपनाई गई। इस आंदोलन के प्रमुख नेताओं में मुहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खाँ एवं अबुल कलाम आजाद इत्यादि थे। गांधीजी के सुझाव पर एक शिष्टमंडल डाॅ0 अंसारी की अध्यक्षता में वायसराय से मिलने गया तथा एक अन्य शिष्टमंडल मौलाना शौकत अली के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार से वार्ता हेतु इंग्लैण्ड गया। बहरहाल, दोनों ही प्रतिनिधिमण्डल अपने उद्देश्यों में असफल रहे। 9 जून, 1920 को इलाहाबाद में हुई बैठक में खिलाफत के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया तथा 31 अगस्त, 1920 का दिन ’खिलाफत दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता में हुए विशेष अधिवेशन (सितम्बर 1920) की अध्यक्षता लाला लाजपत राय द्वारा की गई। इस अधिवेशन में गांधीजी की प्रेरणा से एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें ब्रिटिश सरकार के दो अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए असहयोग का निर्णय लिया गया। ये दो कार्य थे- खिलाफत मुद्दे के प्रति ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण तथा  के निर्दोष लोगों की रक्षा न करने व उनसे बर्बर व्यवहार करने वाले अधिकारियों को दंण्डित करने में सरकार की विफलता।

असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव सन् 1920 ई0 में कांग्रेस के नागपुर में आयोजित वार्षिक अधिवेशन में अंतिम रूप से पारित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण संशोधन भी पारित किए गए। पहला, कांग्रेस में संगठनात्मक परिवर्तन किया गया एवं रचनात्मक कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की गई। दूसरा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वराज प्रापत करना हो गया जो कि पूर्व में ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन था। इन कार्यक्रमों में सभी वयसकों को कांग्रेस की सदस्यता प्रदान करने के अतिरिक्त 300 सदस्यों वाली एक अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का गठन करना, हाथ की बुनाई, कताई या स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन देना, ग्राम, तालुका एवं जिला सतर पर कांग्रेस की समितियों का एक संस्तर बनाना, हिन्दी का यशासंीाव प्रयोग करना तथा प्रांतों में भाषाई आधार पर कांग्रेस समितियों को पुनर्गठन करना, हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन देना तथा अस्पृश्यता के निवारण हेतु यथासंभव प्रयत्न करना आदि शामिल था

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