क्रांतिकारी आतंकवाद का प्रथम चरण: 1905-1915

क्रांतिकारी आतंकवाद का प्रथम चरण: 1905-1915

1905.1907द्ध क्रांतिकारी आतंकवाद का उदय 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ। यह उग्रवादी राष्ट्रवाद   का ही अगला चरण था। इसके उदय के प्रमुख कारणों में उदारवादियों द्वारा अपनाई गई निष्क्रिय प्रतिरोध की नीति तथा ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी एवं दमन की नीतियाँ जिम्मेदार थीं। इस विचारधारा के समर्थकों में यह विश्वास था कि पाश्चात्य उपनिवेशवादी साम्राज्य को केवल हिंसक साधनों का प्रयोग करके ही समाप्त किया जा सकता है। इसीलिए इन्होंने हिंसा का मार्ग अपनाया। इनका आदर्श वाक्य तिलक द्वारा दिया गया नारा ’अनुनय-विनय नहीं बल्कि युयुत्सा’ था। तत्कालीन क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र पंजाब, बंगाल तथा महाराष्ट्र थे। क्रांतिकारी आतंकवाद के प्रथम चरण में विचारधारा के स्तर पर दो भिन्न मत प्रचलित थे। प्रथम विचारधारा के अनुयायियों के अनुसार ब्रिटिश सरकार से सशस्त्र संघर्ष हेतु भारतीय सेना अन्य यूरोपीय ताकतों से भी मदद ली जानी चाहिए, जबकि द्वितीय विचारधारा के अनुयायियों के अनुसार उन व्यक्तियों की हत्या तक ही सीमित रहना चाहिए जो क्रांतिकारी नेताओं के विरूद्ध अंग्रेजी अफसरों और पुलिसवालों को सूचना देते हों। ये सभी क्रांतिकारी फ्रांसीसी क्रांति, आयरलैंण्ड की क्रांति, इटली के पुनर्जागरण, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम तथा सोवियत संघ की समाजवादी क्रांति के आदर्शों से प्रेरित थे।

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र के चापेकर बंधुओं (दामोदर एवं बालकृष्ण) ने 1897 में पुणे के प्लेग कमिश्नर रैण्ड एवं लेफ्टिनेंट एमहस्र्ट की हत्या करके क्रांतिकारी गतिविधियों की नींव डाली। चापेकर बंधु क्रांतिकारी संस्था ’हिंदू धर्म संघ’ से संबद्ध थे। उन्हें गिरफ्तार कर फाँसी दे दी गई।

महाराष्ट्र में ’आर्य बांधव समाज’ एक अन्य क्रांतिकारी संगठन था जिसकी नींव तिलक की प्रेरणा से पड़ी। महाराष्ट्र के अन्य क्रांतिकारी संगठनों में विनायक दामोदर सावरकर द्वारा 1904 ई. में स्थापित ’अभिनव भारत समाज’ प्रमुख थे। महाराष्ट्र तथा मध्य प्रांत के विभिन्न क्षेत्रों में इस संगठन की अनेक शाखाएँ स्थापित की गयीं। इसी समिति के एक प्रमुख सदस्य अनंत लक्ष्मण करकरे ने नासिक के जिला मजिस्टेªट जैक्सन की हत्या कर दी। इतिहास में यह घटना ’नासिक षड्यंत्र केस’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस केस में 27 क्रांतिकारियों को दोषी पाकर दंउित किया गया। इन क्रांतिकारियों में सावरकर के भाई गणेश प्रमुख थे, जिन्हें देशद्रोही लेखों और ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्ध भड़काने के आरोप में आजीवन कालापानी की संज्ञा दी गई थी।

बंगाल

1905 ई. के बंगाल विभाजन के पश्चात् यहाँ क्रांतिकारी घटनाओं की शुरूआत हुई। यद्यपि बंगाल विभाजन के पूर्व भी यहाँ कई क्रांतिकारी संगठन अस्तित्व में थे। इनमें 1902 ई. में मिदनापुर में ज्ञानेन्द्रनाथ बसु द्वारा तथा कलकत्ता में जतीन्द्रनाथ बनर्जी और बारीन्द्रनाथ घोष द्वारा स्थापित ’अनुशीलन समिति’ प्रमुख क्रांतिकारी संगइन था। इसके अतिरिक्त मायमेनसिंह की सुहृद समिति, बारीसाल की स्वदेश बांधव समिति, फरीदपुर की वर्ती समिति तथा साधना समिति भी आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न थीं। इन सभी समितियों को सरकार द्वारा गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।  बंगाल में अनेक क्रांतिकारी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं का संपादन किया गया।

यह बंगाल विभाजन के पश्चात् की पत्र-पत्रिकाएँ थीं जिनमें ब्रह्म बांधव उपाध्याय द्वारा संपादित संध्या, अरविंद घोष द्वारा संपादित युगांतर इत्यादि प्रमुख थीं। युगांतर नामक एक अन्य क्रांतिकारी समिति भी थी, जो बंगाल के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी शाखाओं के माध्यम से क्रांतिकारी दर्शन का प्रचार-प्रसार कर रही थी। वारीन्द्र घोष के नेतृत्व में युगांतर समूह ने सर्वत्र क्रांति का बिगुल बजाया तथा क्रांति को प्रभावी बनाने के तौर-तरीकों का प्रचार-प्रसार किया।

1908 ई. में पेरिस में एक रूसी प्रवासी से सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर भारत लौटे हेमचंद्र कानूनगो का नाम बंगाल के क्रांतिकारियों की पहली पीढ़ी में गिना जाता है। उन्होंने कलकत्ता स्थित मणिकतल्ला में बम बनाने का कारखाना खोला। इसी दौरान बंगाल के दो क्रांतिकारियों प्रफुल्ल चाकी तथा खुदीराम बोस ने 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर (बिहार) के जिला न्यायाधीश डी. एच. किंग्सफोर्ड पर बम फेंककर उसकी हत्या करने का प्रयास किया, जिसमें किंग्सफोर्ड बच गया, किंतु उसकी पत्नी तथा पुत्री मारी गयीं। इस घटना के उपरांत प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली, किंतु खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर लिया गया। खुदीराम बोस को 1908 ई. में 15 वर्ष की अल्पायु में फाँसी दे दी गई। वे सबसे कम उम्र में फाँसी पाने वाले क्रांतिकारी थे। इस घटना के तुरंत बाद पुलिस द्वारा मणिकतल्ला पर छापा मारा गया और वहाँ से वारीन्द्र और अरविंद घोष सहित गिरफ्तार सभी व्यक्तियों पर अलीपुर षडयंत्र केस के तहत मुकदमा चलाया गया। वारीन्द्र को आजीवन कारावास का दंड दिया गया तथा अरविंद घोष को साक्ष्यों के अभाव में छोड़ दिया गया।

प्रथम विश्वयुद्ध का छिड़ जाना पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयासरत क्रांतिकारियों को स्वर्णिम अवसर प्रतीत हुआ। बंगाल में 1915-16 ई. के मध्य राजनीतिक डकैतियाँ तथा हत्याएँ अपने चरम पर थीं। अधिकांश क्रांतिकारी गुटों ने अपने आपको ’बाघा जतिन’ नाम से प्रसिद्ध क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में एकत्रित कर लिया था। 9 सितम्बर, 1915 को बालासोर (उड़ीसा) में अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने अंग्रेजों से मुकाबला किया। बंगाल के अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में रासबिहारी बोस का नाम बहुत प्रसिद्ध है।

कलकत्ता से दिल्ली राजधानी परिवर्तन के समय लाॅर्ड हार्डिंग के जुलूस पर बम फेंककर उसकी हत्या करने की योजना रासबिहारी बोस द्वारा ही बनाई गई थी। गिरफ्तारी से बचने के लिए वे जापान चले गए। इस घटना में अवध बिहारी, अमीर चंद्र, लाल मुकंुद तथा बसंत कुमार विश्वास को गिरफ्तार कर इन पर मुकदमा चलाया गया। यह घटना इतिहास में ’दिल्ली षड्यंत्र केस’ के नाम से चर्चित है। इन क्रांतिकारियों को फाँसी तथा आजीवन कारावास की सजाएँ हुईं। ब्रिटिश सरकार द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों के दमन हेतु 1908 ई. में विस्फोटक पदार्थ अधिनियम तथा 1910 ई0 में समाचार-पत्र अधिनियम का सहारा लिया गया। इन सभी कार्यवाहियों के फलस्वरूप कुछ क्रांतिकारी भूमिगत होकर कार्य करने लगे तथा कुछ विदेशी धरती से क्रांतिकारी गतिविधयों का संचालन करने लगे। अरविंद घोष द्वारा क्रांतिकारी क्रियाकलापों को त्यागकर पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना की गई। रवीन्द्रनाथ टैगोर को सर्वप्रथम ’गुरुदेव’ कहने वाले ब्रह्म बंधोपाध्याय रामकृष्ण मठ के स्वामी बन गये।

मद्रास 

मद्रास प्रांत में नीलकंठ ब्रह्मचारी एवं वंची अय्यर द्वारा गुपत रूप से ’भारत माता समिति’ की स्थापना की गई। 17 जून, 1911 को वंची अय्यर ने तिरुनेलवेली के जिलाधिकारी आशे की हत्या करने के पश्चात् आत्महत्या कर ली।

पंजाब

अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों, जैसे-भू-राजस्व एवं सिंचाई दरों में वृद्धि तथा अकालों की बारंबारता ने पंजाब में क्रांतिकारी आतंकवाद का बिगुल बजा दिया। ’भारत माता सोसाइटी’ के संस्थापक जतिन मोहन चटर्जी पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रणेता थे। परवर्ती काल में लाला हरदयाल, अजीत सिंह और सूफी अंबा प्रसाद ने पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन की बागडोर संभाली।

कालांतर में लाला हरदाया अमेरिका चले गए। वहाँ उन्होंने गदर पार्टी आंदोलन का नेतृत्व किया। 1907 ई. में ब्रिटिश सरकार ने अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय को निर्वासित कर दिया। क्रांतिकारी नेतृत्व में आई इस शून्यता को लाला अमीरचंद ने भरा। इनका संबंध बंगाल के क्रांतिकारी दल से था।

1915 ई. में बंगाल के क्रांतिकारियों ने संगठित आंदोलन की रूपरेखा तैयार की जिसमें यह तय किया गया कि 21 फरवरी, 1915 ई. को संपूर्ण उत्तरी भारत में क्रांति का बिगुल बजाया जाएगा। ब्रिटिश सरकार को इस योजना की जानकारी मिल गई। इस षड्यंत्र के नेताओं, यथा- पृथ्वी सिंह, परमानंद, करतार सिंह आदि को फाँसी एवं कारावास की सजा सुनाई गई। यह घटना इतिहास में लाहौर षड्यंत्र केस के नाम से प्रसिद्ध है।

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