केन्द्र-राज्य सम्बन्ध (संविधान)

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध- सांविधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 246:-संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रगणित विषयों पर विधि बनाने की शक्ति।
अनुच्छेद 248:-अवशिष्ट शक्तियां संसद के पास
अनुच्छेद 249:-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास
अनुच्छेद 250:-यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद की शक्ति
अनुच्छेद 252:-दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति
अनुच्छेद 257:-संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निदेश दे सकती है
अनुच्छेद 257 क:-संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभिनियोजन द्वारा राज्यों की सहायता
अनुच्छेद 263:-अन्तर्राज्य परिषद का प्रावधान
भारत के संविधान ने केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के बीच शक्तियों के वितरण की निश्चित और सुस्पष्ट योजना अपनायी है। संविधान के आधार पर संघ तथा राज्यों के सम्बन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:
1.    केन्द्र तथा राज्यों के बीच विधायी सम्बन्ध।
2.    केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध।
3.    केन्द्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्ध।
1.भारतीय संघ में केन्द्र-राज्य विधायी सम्बन्धकेन्द्र-राज्य सम्बन्ध के विधायी सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें
  1. संघ सूची (Union List)
  2. राज्य सूची (State List)
  3. समवर्ती सूची(Concurrent List)

का नाम दिया गया है। इन सूचियों को सातवीं अनुसूची में रखा गया है।
संघ सूची:-इस सूची में राष्ट्रीय महत्व के ऐसे विषयों को रखा गया है जिनके सम्बन्ध में सम्पूर्ण देश में एक ही प्रकार की नीति को अपनाना आवश्यक कहा जा सकता है। इस सूची के सभी विषयों में विधि निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है। इस सूची में कुल 99 विषय हैं जिनमें से कुछ प्रमुख ये हैं-रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि, देशीकरण व नागरिकता, विदेशियों का आना-जाना, रेल, बन्दरगाह, हवाई मार्ग, डाकतार, टेलीफोन व बेतार, मुद्रा निर्माण, बैंक, बीमा, खानें व खनिज, आदि।
राज्य सूची:-इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गये हैं जो क्षेत्रीय महत्व के हैं। इस सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार सामान्यतया राजयों की व्यवस्थापिकाओं को प्राप्त है। इस सूची में 61 विषय हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं: पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और सड़कें आदि।
समवर्ती सूची:-औपचारिक रूप में और कानूनी दृष्टि से इन तीनों सूचियों के विषयों की संख्या वही बनी हुई है, जो मूल संविधान में थी। लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन (1976) द्वारा राज्य सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, जंगली जानवर तथा पक्षियों की रक्षा और नाप-तौल) समवर्ती सूची में कर दिए गए हैं और समवर्ती सूची में एक नवीन विषय ’जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ शामिल किया गया है। इस प्रकार आज स्थिति यह है कि गणना की दृष्टि से समवर्ती सूची के विषयों की संख्या 52 हो गई है, लेकिन संवैधानिक दृष्टि से समवर्ती सूची के विषयों की संख्या आज भी 47 ही है। इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गए हैं, जिनका महत्व संघीय और क्षेत्रीय, दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषयों पर संघ तथा राज्यों दोनों को ही कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के किसी विषय पर संघ तथा राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हों, तो सामान्यतः संघ का कानून मान्य होगा। इस सूची में कुल 47 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख विषय हैं: फौजदारी, विधि तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह और विवाह-विच्छेद, दत्तक और उत्तराधिकार, कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्व, शिक्षा और वन, आदि।
अवशेष विषय:-भारतीय संघ में कनाडा के संघ की तरह अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति संघीय व्यवस्थापिका को प्रदान की गयी है।
राज्य सूची के विषयों पर संसद की व्यवस्थापन की शक्ति:-
सामान्यतया संविधान द्वारा किए गए इस शक्ति विभाजन का उल्लंघन किसी भी सत्ता द्वारा नहीं किया जा सकता। संसद द्वारा राज्य सूची के किसी विषय पर और किसी राज्य की व्यवस्थापिका द्वारा संघ सूची के किसी विषय पर निर्मित कानून अवैध होगा। लेकिन संसद के द्वारा कुद विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत राष्ट्रीय हित तथा राष्ट्रीय एकता हेतु राज्य सूची के विषयों पर भी कानूनों का निर्माण किया जा सकता है। संसद को इस प्रकार की शक्ति प्रदान करने वाले संविधान के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  1. राज्य सूची का विषय राष्ट्रीय महत्व का होने पर:- संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है कि राज्य सूची में उल्लिखित कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का हो गया है, तो संसद को उस विषय पर विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसकी मान्यता केवल एक वर्ष तक रहती है। राज्यसभा द्वारा प्रस्ताव पुनः स्वीकृत करने पर इसकी अवधि में एक वर्ष की वृद्धि और हो जाएगी। इसकी अवधि समाप्त हो जाने के उपरान्त भी यह 6 माह तक प्रयोग में आ सकता है।
  2. राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा इच्छा प्रकट करने पर:- अनुच्छेद 252 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल प्रस्ताव पास कर यह इच्छा व्यक्त करते हें कि राज्य सूची के किन्हीं विषयों पर संसद द्वारा कानून का निर्माण किया जाए, तो उन राज्यों के लिए उन विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है। राज्यों के विधानमण्डल न तो इन्हें संशोधित कर सकते हैं और न ही इन्हें पूर्ण रूप से समाप्त कर सकते है
  3. संकटकालीन घोषणा होने पर (अनुच्छेद 250):-संकटकालीन घोषणा की स्थिति में राज्य की समस्त विधायिनी शक्ति पर भारतीय संसद का अधिकार हो जाता है। इस घोषणा की समाप्ति के 6 माह बाद तक संसद द्वारा निर्मित कानून पूर्ववत् चलते रहेंगे
  4. विदेशी राज्यों से हुई सन्धियों के पालन हेतु (अनुच्छेद 253):-यदि सरकार ने विदेशी राज्यों से किसी प्रकार की सन्धि की है अथवा उनके सहयोग के आधार पर किसी नवीन योजना का निर्माण किया है तो इस सन्धि के पालन हेतु संघ सरकार को सम्पूर्ण भारत की सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्णतया हस्तक्षेप और व्यवस्था करने का अधिकार होगा। इस प्रकार इस स्थिति में भी संसद को राज्य सूची के विषय पर कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  5. राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग होने पर (अनुच्छेद 356):-यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार भारतीय संसद को प्रदान करता है।
  6. कुछ विधेयकों को प्रस्तावित करने और कुछ की अन्तिम स्वीकृति के लिए केन्द्र का अनुमोदन आवश्यक:-अनुच्छेद 304(ख) के अनुसार कुछ विधेयक ऐसे होते हैं, जिनके राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किए जाने के पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, वे विधयक, जिनके द्वारा सार्वजनिक हित की दृष्टि से उस राज्य के अन्दर या उसके बाहर व्यापार, वाणिज्य या मेलजोल पर कोई प्रतिबन्ध लगाए जाने हों।

अनुच्छेद 31(ग) के अनुसार राज्य सूची के ही कुछ विषयों पर राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित विधेयक उस दशा में अमान्य होंगे, यदि उन्हें राष्ट्रपति के विचारार्थ न रोके रखा हो और उन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति न प्राप्त कर ली गयी हो। उदाहरण के लिए, किसी राज्य द्वारा सम्पत्ति के अधिग्रहण के लिए बनाए गए कानूनों या समवर्ती सूची के विषयों के बारे में ऐसे कानूनों, जो संसद के उससे पहले बनाए गए कानून के प्रतिकूल हों या उन पर जिनके द्वारा ऐसी वस्तुओं की खरीद और बिक्री पर लगाया जाने वाला हो, जिन्हें संसद ने समाज के जीवन के लिए आवश्यक घोषित कर दिया है, राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।
राज्य-सूची के विषयों पर केन्द्रीय हस्तक्षेप:-राज्यों द्वारा यह भी शिकायत की गयी है कि केन्द्र उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य जैसे विषयों पर कानून बनाने लग गया है, जबकि ये विषय राज्य सूची में उल्लिखित हैं। सन् 1951 में संसद ने उद्योग विकास एवं नियन्त्रण अधिनियम पारित किया, जिसमें उन उद्योगों का उल्लेख किया गया, जिन पर जनहित में केन्द्र द्वारा नियन्त्रण करना आवश्यक था। धीरे-धीरे अनेक उद्योगों को इस अधिनियम के अन्तर्गत ले लिया गया। इस प्रकार राज्य सूची में वर्णित 24, 26 तथा 27 क्रम वाले विषयों पर केन्द्र का अधिकार स्थापित हो गया। यही नहीं, रेजन पत्ती, कागज, गोंद, जूते, माचिस, साबुन, आदि से सम्बन्धित उद्योगों पर भी केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण स्थापित हो गया। राज्यों के नेताओं का कहना है कि इस प्रकार के अत्यधिक केन्द्रीकरण से राज्यों का आर्थिक विकास अवरूद्ध हो रहा है।
2. भारतीय संघ में केन्द्र-राज्य

प्रशासनिक सम्बन्ध

प्रशासनिक सम्बन्ध: संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में
भारतीय संविधान के ग्यारहवें भाग के दूसरे अध्याय में केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों की चर्चा की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार केन्द्र की प्रशासकीय शक्ति उन विषयों तक सीमित है जिन पर संसद को विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 162 के अनुसार राज्यों की प्रशासकीय शक्तियां उन विषयों तक सीमित हैं जिन पर राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची के विषयों के सम्बन्ध में प्रशासनिक अधिकार साधारणतया राज्यों में निहित हैं, किन्तु इन विषयों पर राज्य की प्रशासकीय शक्तियों को संघ की ऐसी प्रशासनिक शक्तियों द्वारा सीमित रखा गया है जो या तो संविधान द्वारा या संसदीय विधि द्वारा प्रदत्त हैं।
प्रशासनिक सम्बन्ध
(क) राज्यों के ऊपर संघीय नियन्त्रण के उपाय:-संकटकाल में केन्द्रीय सरकार का राज्य सरकार के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण रहता है। साधारण काल में यद्यपि राज्य सरकारों को सामान्यतया अपने क्षेत्र में पूर्ण सत्ता प्राप्त रहती है फिर भी केन्द्रीय सरकार कुछ सीमा तक उन्हें नियन्त्रित करती है। नियन्त्रण के अग्रलिखित साधनों को अपनाया गया है:

  • राज्य सरकारों को निर्देश:- अनुच्छेद 256 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे। संघीय कार्यपालिका को यदि वह आवश्यक समझे तो इस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश द्वारा पारित विधियों के क्रियान्वयन के मार्ग में कोई बाधा न पहुंचे।

अनुच्छेद 257 में उपबन्धित किया गया है कि प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग होना चाहिए जिससे संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में बाधा या प्रतिकूल प्रभाव न पड़े तथा संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक विस्तृत होगा, जो भारत सरकार को इस प्रयोग के लिए आवश्यक दिखायी दे। यह देखना भी संघ की कार्यपालिका का कर्तव्य है कि राज्य सरकारें सामरिक महत्व की सड़कों और अन्य संचार साधनों की उचित देखभाल करें।
संघीय कार्यपालिका किसी राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत रेल-पथ की रक्षा के लिए उस राज्य की सरकार को निर्देश दे सकती है। संचार साधनों तथा रेल-पथों के निर्माण, देखभाल तथा संरक्षण के सम्बन्ध में संघीय कार्यपालिका के निर्देश के कारण जो अतिरिक्त व्यय होगा, उस अतिरिक्त धनराशि का वहन संघीय सरकार को करना होगा।
उल्लेखनीय यह है कि अनुच्छेद 256 संघीय कार्यपालिका को उसके निर्देशों को लागू करने के लिए बाध्यकारी शक्ति प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत राज्य सरकार द्वारा निर्देशों का पालन न किए जाने पर राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा कर राज्य के शासन को अपने हाथ में ले सकता है।

  • राज्य सरकारों को संघीय कृत्य सौंपना:- अनुच्छेद 258 में निर्धारित शर्तों के अनुसार संघ राज्यों को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य हस्तान्तरित कर सकता है तथा राज्य संघ को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य सौंप सकते हैं। संघ सरकार द्वारा राज्य सरकारों को अपने प्रशासनिक कृत्य सौंपे जाने पर इन कृत्यों को सम्पन्न करने में जो भी खर्च होगा उसका वहन संघीय सरकार करेगी।
  • अखिल भारतीय सेवाएं:- अनुच्छेद 312 के अनुसार राज्यसभा उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पास कर किसी नवीन अखिल भारतीय सेवा का निर्माण कर सकती है। यद्यपि इन सेवाओं के सदस्यों द्वारा वेतन, भत्ते, आदि राज्य सरकारों से प्राप्त किए जाते हैं, लेकिन उनकी वेतन शृंखला और अन्य उपलब्धियां केन्द्र सरकार द्वारा ही निश्चित की जाती हैं। इसके अतिरिक्त, इन सेवाओं के सदस्यों के विरूद्ध कोई भी अनुशासन सम्बन्धी कार्यवाही संघीय गृह मन्त्रालय द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के परामर्श के आधार पर ही की जा सकती है। ये अखिल भारतीय सेवाएं राज्य सरकारों पर केन्द्रीय नियन्त्रण के बहुत अधिक महत्वपूर्ण उपाय हैं।
  • सहायता अनुदान:-अनुच्छेद 275 के अनुसार संसद राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता व अनुदान भी दे सकती हे। अनुदान देते समय संसद राज्यों पर कुछ शर्तें लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकती है।
  • आपातकाल की घोषणा:-इन सबके अतिरिक्त जब राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा करते हैं तब राज्यों पर संघीय सरकार का पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।

(ख) केन्द्र-राज्य मतभेदों के निवारण की विधियां:-संघीय शासन प्रणाली में पारस्परिक सहयोग होना आवश्यक है। यद्यपि राज्यों को पृथक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं तथापि संविधान में निम्नलिखित विषयों पर राज्यों के पारस्परिक सहयोग पर बल दिया गया है:

  1. संघीय क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को मान्यता प्रदान करना:-अनुच्छेद 261 के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र संघ की तथा प्रत्येक राज्य की सार्वजनिक क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को पूरी मान्यता दी जाएगी। इनकी प्राथमिकता सिद्ध करने की रीति और शर्तें तथा उनके प्रभाव का निर्धारण संसद द्वारा उपबन्धित रीति के अनुसार होगा। यह भी आयोजित किया गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग के दीवानी न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय तथा आदेश उस राज्य क्षेत्र के अन्दर सभी स्थानों पर निष्पादित किए जाएंगे।
  2. अन्तर्राज्यीय नदियों या नदी के जल सम्बन्धी विवादों का निर्णय:- अनुच्छेद 262 के अनुसार, किसी अन्तर्राज्यीय नदी तथा घाटी के या जलाशयों के प्रयोग, वितरण, विवाद या फरियाद के न्याय निर्णय के बारे में संसद विधि द्वारा व्यवस्था करेगी। ऐसे विवाद के सम्बन्ध में संसद यह निर्णय भी कर सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय या अन्य कोई न्यायालय इस सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं करेगा।
  3. अन्तर्राज्य परिषद की व्यवस्था:- अनुच्छेद 263 के अन्तर्गत, राज्यों के पारस्परिक सहयोग के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद का प्रावधान किया गया है। इस परिषद का प्रमुख कार्य राज्यों के मध्य विवादों का परीक्षण करना तथा उन पर परामर्श देना है। भारतीय राज व्यवस्था में पहली बार जून 1990 में अन्तर्राज्य परिषद की स्थापना की गई है।
  4. क्षेत्रीय परिषदों  का निर्णय(Zonal Councils):-क्षेत्रीय परिषदों का निर्माण भी किया जा सकता है। व्यवहार में सम्पूर्ण भारत को पांच क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक क्षेत्रीय परिषद है। क्षेत्रीय परिषदों के कार्य उन विषयों से सम्बन्धित होंगे जिनमें क्षेत्र के सभी या कुछ राज्य या संघ और एक या अधिक राज्य रुचि रखते हैं।
  5. अन्तर्राज्यीय व्यापार-वाणिज्य से सम्बन्धित संविधान के प्रावधानों के क्रियान्वयन के लिए अनुच्छेद 307 के अनुसार संसद एक प्राधिकारी की नियुक्ति करेगी तथा उसको ऐसी शक्तियां और कर्तव्य सौंप सकती है जो वह आवश्यक समझे।
  6. इसके अतिरिक्त कतिपय ऐसे भी विषय हैं जिनका सम्बन्ध यद्यपि दोनों सरकारों से है तथापि इनका निर्धारण केन्द्रीय सरकार ही करती है। उदाहरण के लिए, निर्वाचन, लेखा परीक्षण, राज्यपाल की नियुक्ति, आदि।

3. भारतीय संघ में केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध
केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध: संवैधानिक प्रावधान
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य राजस्व के साधनों के विभाजन के आधारभूत सिद्धान्त हैं-कार्यक्षमता, पर्याप्तता तथा उपयुक्तता। इन तीनों उद्देश्यों की एक साथ ही प्राप्ति अत्यन्त कठिन थी, अतः भारतीय संविधान में समझौतें की चेष्टा की गयी। संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों को निरूपण इस प्रकार किया जाता है:
1. कर निर्धारण, शक्ति का वितरण और करों से प्राप्त आय का विभाजन:- भारतीय संविधान में वित्तीय प्रावधानों की दो विशेषताएं हैं: प्रथम, संघ तथा राज्यों के मध्य कर-निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है और द्वितीय, करों से प्राप्त आय का बंटवारा होता है।
संघ के प्रमुख राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं-निगम कर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, विदेश ऋण, रेलें, रिजर्व बैंक, शेयर, बाजार, आदि। राज्यों के राजस्व स्रोत हैं-प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शुल्क, भूमि और भवनों पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, वाहनों पर चुंगी कर, आदि।
संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्कों के उदाहरण हैं: बिल, विनिमयों, प्रोमिसरी नोटों, हुण्डियों, चैकों, आदि पर मुद्रांक शुल्क और दवा, मादक द्रव्य पर कर, शौक-श्रंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क।
संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले करों के उदाहरण हैं: कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, रेल, समुद्र, वायु द्वारा ले जाने वाले माल तथा यात्रियों पर सीमान्त कर, रेल भाड़ों तथा वस्तु भाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार के आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त कर, समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और समाचार-पत्रों के अन्य अन्तर्राज्यीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।
कतिपय कर संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत किए जाते हैं, पर उनका विभाजन संघ तथा राज्यों के बीच होता है। आय-कर का विभाजन संघीय भू-भागों के लिए निर्धारित निधि तथा संघीय खर्च को काटकर शेष राशि में से किया जाता है। आय-कर के अतिरिक्त दावा तथा शौक-शंृगार सम्बन्धी चीजों के अतिरिक्त अन्य चीजों पर लगाया गया उत्पादन शुल्क इसके अन्तर्गत आता है।
2. सहायता अनुदान तथा अन्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए दिया जाने वाला अनुदान:- संविधान के अन्तर्गत केन्द्र द्वारा राज्यों को चार तरह के सहायक अनुदान प्रदान करने की व्यवस्था की गयी है। प्रथम पटसन व उससे बनी वस्तुओं के निर्यात से जो शुल्क प्राप्त होता है उसमें से कुछ भाग अनुदान के रूप में जूट पैदा करने वाले राज्यों-बिहार , पं0 बंगाल, असम व उड़ीसा-को दे दिया जाता है। द्वितीय, बाढ़, भूकम्प व सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पीडि़तों की सहायता के लिए भी केन्द्रीय सरकार राज्यों को अनुदान दे सकती है। तृतीय, जनजातियों व कबीलों की उन्नति व उनके कल्याण की योजनाओं के लिए भी सहायक अनुदान दिया जाता है। चतुर्थ, राज्यों को आर्थिक कठिनाइयों से उबारने के लिए केन्द्र राज्यों की वित्तीय सहायता कर सकता है।
3. ऋण लेने सम्बन्धी उपबन्ध:- संविधान केन्द्र को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह अपनी संचित निधि की साख पर देशवासियों व विदेशी सरकारों से ऋण ले सके। ऋण लेने का अधिकार राज्यों को भी प्राप्त है, परन्तु वे विदेशों से उधार नहीं ले सकते। यदि किसी राज्य सरकार पर संघ सरकार का कोई कर्ज बाकी है तो राज्य सरकार अन्य कर्ज संघ सरकार की अनुमति से ही ले सकती है। इस प्रकार का कर्ज देते समय संघ सरकार किसी भी प्रकार की शर्त लगा सकती है।
4. करों की विमुक्ति:- राज्यों द्वारा संघ की सम्पत्ति पर कोई कर तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक संसद विधि द्वारा कोई प्रावधान न कर दे। भारत सरकार या रेलवे द्वारा प्रयोग में आने वाली बिजली पर संसद की अनुमति के अभाव में राज्य किसी प्रकार का शुल्क नहीं लगा सकते। इसी प्रकार संघ सरकार भी राज्य की सम्पत्ति और आय पर कर नहीं लगा सकती।
5. भारत के नियन्त्रक-महालेखा परीक्षक द्वारा नियन्त्रण:- भारत के नियन्त्रक-महालेखा परीक्षक की नियुक्ति केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के परामर्श से राष्ट्रपति करता है। यह भारत सरकार तथा राज्य सरकारों के हिसाब का लेखा रखने के ढंग और उनकी निष्पक्ष रूप से जांच करता है। नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक के माध्यम से ही भारतीय संसद राज्यों की आय पर अपना नियन्त्रण रखती है।
6. वित्तीय संकटकाल:- वित्तीय संकटकालीन घोषणा की स्थिति में राज्यों की आय सीमा राज्य सूची में चर्चित करों तक ही सीमित रहती है। वित्तीय संकट के प्रवर्तन काल में राष्ट्रपति को संविधान के उन सभी प्रावधानों को स्थगित करने का अधिकार है जो सहायता अनुदान अथवा संघ के करों को आय में भाग बंटाने से सम्बन्धित हों। केन्द्रीय सरकार वित्तीय मामलों में राज्यों को निर्देश भी दे सकती है।
राज्यपाल:- आयोग का सुझाव है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के अलावा किसी अन्य दल द्वारा शासित राज्य में केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के किसी व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। राज्य के पद से निवृत्त होने के बाद किसी व्यक्ति को लाभ का कोई भी पद नहीं देना चाहिए। वह राष्ट्रपति पद या उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ सकता है, पर दलगत राजनीति में सक्रिय भाग नहीं ले सकता। आयोग का सुझाव है कि संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन कर राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरे की व्यवस्था अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
राज्यपाल के पद पर ऐेसे व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाना चाहिए जो किसी क्षेत्र में जानी-मानी हस्ती हो। वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जिसने दलीय राजनीति में सक्रिय भाग, विशेषकर नियुक्ति के तत्काल पहले सक्रिय भाग न लिया हो।
जांच आयेाग:- केन्द्र सरकार को किसी राज्य के मुख्यमन्त्री या पूर्व मुख्यमंत्री के विरूद्ध पद के दुरुपयोग के आरोपों की जांच के लिए जांच आयोग नियुक्त करने का अधिकार है। इस अधिकार का दुरुपयोग न किया जा सके, इसके लिए व्यवस्था होनी चाहिए कि केन्द्र सरकार के ऐसे किसी प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों का अनुसमर्थन आवश्यक हो।

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