कन्नौज के गहड़वाल,गुजरात का चालुक्य,कल्याणी के उत्तर कालीन पश्चिमी चालुक्य,हिन्दू शाही वंश,कश्मीर का इतिहास,कारकोट वंश,उत्पल वंश,लोहर वंश,देवगिरि के यादव,द्वारसमुद्र के होयसल,कदम्ब वंश

कन्नौज के गहड़वाल

संस्थापक- चन्द्रदेव  
राजधानी:- कन्नौज
गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद चन्द्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना 1090 ई0 में की। गहड़वाल शासकों को काशी नरेश के नाम से भी जाना जाता था। इस वंश का पहला प्रसिद्ध शासक गोविन्द चन्द्र हुआ।
गोविन्द चन्द्र (1114-55):- यह इस वंश का शक्तिशाली शासक था। इसके लेखों में इसे ’’विविध विद्या विचार वाचस्पति’’ कहा गया है। इसका मंत्री लक्ष्मीधर अत्यन्त विद्वान था उसने कृत्यकल्पतरू नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। इसकी पत्नी कुमार देवी बौद्ध मतानुयायी थी। इसके एक अभिलेख से पता चलता है कि उसने सूर्य, शिव, वासुदेव आदि देवता की पूजा की थी तथा उत्कल (उड़ीसा) के बौद्ध भिक्षु शाक्य रक्षित तथा चोल देश में उनके शिष्य वांगेश्वर रक्षिता का सम्मान किया था।

जयचन्द्र (1170-94):- गहड़वाल वंश का यह सबसे प्रसिद्ध था तथा चैहान शासक पृथ्वीराज का समकालीन था। मुहम्मद गोरी ने 1194 ई0 में चन्दावर (एटा जिला) के युद्ध में इसे पराजित किया। इसके दरबार में संस्कृति का प्रसिद्ध विद्वान श्रीहर्ष रहता था। उसकी प्रसिद्ध कृति नैषधीयचरितम् है। जयचन्द के पुत्र हरिश्चन्द ने मुहम्मद गोरी के अधीन शासन किया।

गुजरात का चालुक्य अथवा शोलंकी वंश

चालुक्यों ने दशवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक शासन किया। उनकी राजधानी अन्हिलवाड़ थी। ये जैन धर्म के पोषक थे।
संस्थापक:- मूलराज प्रथम (942 ई0)
राजधानी:- अन्हिलवाड़
मूलराज के बाद चामुण्ड राज उसके बाद दुर्लभराज एवं पुनः भीमदेव प्रथम शासक हुआ।
भीमदेव प्रथम (1022-64)-इसके काल की दो प्रमुख घटनाये हैं।

  1. सोमनाथ पर आक्रमण:- महमूद गजनवी ने 1025-26 ई0 में इसी के समय में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया यह कच्छ भाग गया। गजनवी के जाने के बाद इसने सोमनाथ के मन्दिर का पुनः निर्माण करवाया।
  2. दिलवाड़ा का जैन मन्दिर:- भीम प्रथम के सामन्त विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा का प्रसिद्ध जैन मन्दिर बनवाया। इसे विमलशाही के मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मन्दिर में संगमरमर का प्रयोग हुआ है तथा इसमें जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ की प्रतिमा है।

कर्ण (1064-94):- कर्ण की रुचि निर्माण कार्यों में अधिक थी उसने कर्णावती नामक नगर बसाकर वहाँ कर्णेश्वर का मन्दिर तथा कर्णसागर नामक झील का निर्माण करवाया।
जयसिंह सिद्धराज (1094-1153):- यह इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। यद्यपि वह स्वयं शैव था फिर भी उसके दरबार में प्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्र निवास करता था। हेमचन्द्र के ग्रन्थों में परिशिष्टपर्वन और द्वाश्रयकाब्य अत्यन्त प्रसिद्ध है।
सिद्धराज ने आबू पर्वत पर एक मण्डप बनवाया जहाँ उसने अपने सात पूर्वजों की गजारोही मूर्तियां स्थापित करवायीं। सिधपुर में रुद्र महाकाल का मन्दिर भी बनवाया। इसने सोमनाथ जाने वाले यात्रियों से तीर्थ यात्रा कर हटा लिया।
कुमारपाल (1153-72):- यह जैन मतानुयायी था इसने अपने राज्य में यज्ञीय हिंसा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जैन होते हुए भी उसने सोमनाथ के मन्दिर का पुनः निर्माण करवाया। इसके सभी लेखों में शिव की स्तुति की गई है। पशु हत्या, घूत क्रीड़ा, मद्यपान पर रोक। आचार्य हेमचन्द्र के साथ सोमनाथ मंदिर में शिव अर्चना ।
अजय पाल (1172-76):- यह शैव धर्म का उपासक था इसने अनेक जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया और जैन साधुओं की हत्या करवायी। इसके एक नौकर ने छुरा भोंककर इसकी हत्या कर दी।
मूलराज द्वितीय (1176-78):– इसी शासक के समय में मुहम्मद गोरी ने 1178 ई0 में गुजरात पर आक्रमण किया। मुहम्मद गोरी इसके भाई और सेनापति भीम-द्वितीय ने पराजित कर दिया।
भीम द्वितीय (1178-1238):- इसी ने मुहम्मद गोरी को पराजित किया था। इसने कुतुबद्दीन ऐबक को भी पराजित किया था परन्तु बाद में स्वंय पराजित हो गया।
भीमदेव द्वितीय गुजरात के चालुक्य वंश का अन्तिम शासक था। इसके पश्चात् उसके एक मन्त्री लवण प्रसाद ने गुजरात में एक नये वंश बघेल वंश की स्थापना की। इसके बाद गुजरात का राज्य दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।

कल्याणी के उत्तर कालीन पश्चिमी चालुक्य

संस्थापक:– तैल अथवा तैलप द्वितीय (राष्ट्रकूट के सामन्त)
राजधानी:- कल्याणी (कर्नाटक में)
प्रा0 राजधानी:- मान्यखेत (महाराष्ट्र में)
कल्याणी के चालुक्य राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। इस वंश का संस्थापक तैलप द्वितीय था जिसने अन्तिम राष्ट्रकूट नरेश कर्क द्वितीय को पराजित कर मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाया। इसने धारा के परमार शासक मुंज को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इसकी उपाधि अश्वमल्ल तथा मूनैक मल्ल थी।
तैल द्वितीय के बाद सत्याश्रय, विक्रमादित्य पंचम, जयसिंह आदि शासक हुए। इसी के बाद सोमेश्वर प्रथम प्रसिद्ध शासक हुआ।
सोमेश्वर प्रथम (1048-68):- चालुक्य का प्रसिद्ध शासक था। इसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानान्तरित की थी। इसका चोल शासक राजाधिराज प्रथम से कोप्पम का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में सोमेश्वर की पराजय हुई बाद में उसने तुंगभद्रा नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली।
सोमेश्वर प्रथम के बाद सोमेश्वर द्वितीय शासक हुआ। इसके बाद इस वंश का सबसे प्रतापी शासक विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1111) हुआ।
विक्रमादित्य ष्षष्ठ (1076-1111ई0):- यह कल्याणी के चालुक्यों का सबसे प्रतापी शासक था इसके राज्यारोहण से एक नये सम्वत चालुक्य विक्रम सम्वत (1076ई0) का प्रारम्भ होता है। इसके दरबार में संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान विल्हण निवास करते थे जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक विक्रमांकदेव चरित हैं। इसी के दरबार में याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रसिद्ध टीकाकार एवं मिताश्रय के लेखक विज्ञानेश्वर निवास करते थे।
चालुक्यों का अन्तिम शासक सोमेश्वर चतुर्थ हुआ इसे 1190 ई0 के लगभग भिल्लम ने पराजित कर एक नये वंश देवगिरि के यादव वंश की स्थापना की।

हिन्दू शाही वंश

संस्थापकः- कल्लर नामक ब्राहमण द्वारा नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में।
राजधानी:- उदयभाण्डपुर एवं वैहिन्द।
क्षेत्र:- काबुल घाटी से लेकर कश्मीर तक विस्तृत।
हिन्दू-शाही वंश में पहला प्रसिद्ध शासक जयपाल था। महमूद गजनवी ने अपना पहला आक्रमण 1021 ई0 में जयपाल पर ही किया जयपाल ने अग्नि में कूदकर आत्म हत्या कर ली।
जयपाल के बाद में उसका पुत्र (1001 से 1008) आनन्द पाल शाही वंश का शासक बना। महमूद गजनवी ने इसे भी 1008 ई0 में वैहिन्द के युद्ध में पराजित किया। इसके बाद त्रिलोचन पाल एवं भीम पाल शासक हुए हैं बाद में यह राज्य तुर्को के अधीन चला गया।

कश्मीर का इतिहास

कश्मीर का इतिहास मूलतः कल्हण द्वारा लिखित पुस्तक राजतंरगिणी से पता चलता है।
राजतरंगणी:- इसका लेखक कल्हण जाति से ब्राहमण था इसने अपनी पुस्तक बारहवीं शताब्दी (1148-49) में जयसिंह के काल में लिखी। जयसिंह इस पुस्तक में वर्णित अन्तिम शासक भी है। कल्हण ने जयसिंह के पहले के शासक हर्ष को अत्यन्त क्रूर शासक बताया है और उसकी आलोचना भी की है।
राजतंरगणी के बाद के और लेखकों ने भी आगे बढ़ाने का कार्य किया। द्वितीय राजतरंगिणी का रचयिता जोराज एवं श्रीवर को माना जाता है। जबकि तृतीय राजतरंगणी का रचयिता प्राग भट्ट को माना जाता है।
राजनैतिक इतिहास:-राजतरंगणी से पता चलता है कि अशोक ने श्रीनगर का निर्माण करवाया था और उसके समय में कश्मीर उसके राज्य का अंग था। अशोक के पुत्र जलौक को कश्मीर में हिन्दू धर्म के प्रचार का श्रेय दिया जाता है। कनिष्क के समय में पहली शताब्दी में यहीं के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था। इसके बाद कश्मीर में गोनन्द वंश का शासन स्थापित होता है। गोनन्द वंश के बाद कारकोट वंश का अस्तित्व आता है।

  कारकोट वंश

संस्थापक:– दुर्लभ वर्धन शातवी शताब्दी में (632-82)
राजधानी:- श्रीनगर
उपाधि:- प्रताप दित्य
दुर्लभक ने प्रतापपुर नामक नगर की स्थापना की इसके तीन पुत्र थी। चन्द्रपीड़, तारापीड़ और मुक्तापीड़। इनमें तारापीड़ को कल्हण ने अत्यन्त क्रूर बताया है।
ललितादित्य मुक्तापीड़ (724-707):- यह कारकोट वंश का सबसे प्रतापी शासक था इसने चीन राज्य में अपने दूत भेजे इसने परिहासपुर नामक नगर बसाया। इसके अतिरिक्त इसने सूर्य का प्रसिद्ध मारतण्ड मन्दिर का निर्माण भी किया।
जयापीड़ विनयादित्य (778-810): यह ललितादित्य का पुत्र था इसके विद्वानों को आश्रयदाता के रूप में जाना जाता है। इसके दरबार में तीन प्रसिद्ध विद्वान क्षीरभट्ट और दामोदर गुप्त सुशोभित करते थे। इसकी मृत्यु के साथ ही कारकोट वंश का अन्त हो गया। इसके बाद यहाँ दूसरा वंश आया जिसका नाम उत्पल वंश था।

उत्पल वंश

संस्थापक:- अवन्ति वर्मन(855-83)-इसका अधिकांश समय लोकोपकारी कार्यों में बीता इसने अवन्तिपुर नामक नगर एवं सईयापुरा नामक कस्बे का निर्माण कराया। इसके मंत्री एवं अभियन्ता सुय्य ने अनेक नहरों का निर्माण किया। अवन्ति वर्मन के दरबार में दो कवि रत्नाकर एवं आनन्द वर्धन रहते थे।
शंकर वर्मन (883-902):- इस शासक ने कश्मीर की जनता पर अनेक कर लगा दिये जिससे यह बहुत अलोक प्रिय हो गया।
गोपाल वर्मन (1902-04)
विद्दा (958-1003):- इसी शासिका के समय में महमूद गजनवी ने भारत पर अपने आक्रमण प्रारम्भ किये परन्तु उसने कश्मीर पर आक्रमण नही किया विद्दा की मृत्यु के बाद उसके भतीजे संग्रामराज ने कश्मीर में लोहर वंश की स्थापना की।

लोहर वंश

संस्थापक:- संग्रामराज (1003-1028) 
अनन्त:- (1028) – संग्राम राज के बाद अनन्त शासक हुआ। इसके शासन काल में सामन्तों ने विद्रोह किया जिसने इसे कुचल दिया। इसकी पत्नी रानी सूर्यमती प्रशासन में इसको सहयोग करती थी।
हर्ष (1028-1101)- राजतरंगणी का लेखक कल्हण इसका आश्रित कवि था। इसे कश्मीर का नीरो कहा जाता है। कल्हण इसके अत्याचारों का वर्णन करता है। राज्य के आंतरिक अशान्ति के कारण हुए विद्रोह में 1101 ई0 में इसकी हत्या कर दी गई है।
जयसिंह (1128-55)- यह लोहर वंश का अन्तिम शासक थां इसी के काल में कल्हण ने अपनी राजतरंगणी लिखी। चैदहवीं शताब्दी में कश्मीर तुर्कों के अधीन चला गया।

देवगिरि के यादव

संस्थापक:– भिल्लम (1187)
राजधानी:-देवगिरि (महाराष्ट्र)
चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ के काल में उसके यादव सामन्त भिल्लम ने यादव वंश की स्थापना की। इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक सिंघन (1210-47) हुआ। इस वंश का अन्तिम स्वतन्त्र शासक रामचन्द्र हुआ जिसने अलाउद्दीन के समय में काफूर के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया।

’द्वारसमुद्र के होयसल’

संस्थापक-विष्णु वर्धन (बारहवीं शताब्दी में)
राजधानी-द्वारा समुद्र (कर्नाटक)

द्वारासमुद्र का आधुनिक नाम हेलेविड़ है। होयसल लोग कल्याणी के चालुक्यों के ही सामन्त थें इसकी स्थापना चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय के समय में विष्णुवर्धन ने की। प्रारम्भ में वह जैन मतानुयायी था परन्तु रामानुज के प्रभाव से वैष्णव हो गया।
विष्णवर्धन का काल होयसलेश्वर के मन्दिरों के लिए विख्यात है। इन मन्दिरों में बेलूर में चिन्ना केशव का मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। होयसलेश्वर के मन्दिर बेसर शैली के उदाहरण है।
विष्णु वर्धन के बाद वीर वल्लाल द्वितीय यहीं का शासक हुआ। जिसने चालुक्यों से पूर्णतयः अपने को स्वतन्त्र कर लिया। होयसल वंश का अन्तिम शासक बल्लाल तृतीय जिससे शासन काल में मलिक काफूर ने आक्रमण किया था।

कदम्ब वंश

संस्थापक:- मयूर शर्मन (चैथी शताब्दी के मध्य में)
राजधानी:- कर्नाटक 

धर्म:- सामान्यतः कदम्ब शासक जैन धर्म के पोषक माने जाते हैं। इनके दरबार में जैन धर्म से सम्बन्धित कुरू चक, यापनीय, श्वेत पट्ट, निग्र्रन्थ आदि सम्प्रदाय रहते थे।
कदम्ब वंश का संस्थापक मयूर शर्मन ब्राह्मण धर्म का पोषक था। उसने कुल 18 अश्वमेघ यज्ञ किये उसकी राजधानी वैजन्ती अथवा बनवासी थी। पालसिका उसकी उपराजधानी थी।
मयूर शर्मन के बाद भागीरथ शासक हुआ इसी के समय में गुप्त शासक चन्द्रगुपत विक्रमादित्य ने कालिदास के नेतृत्व में अपना एक एक दूत मण्डल भेजा। इसका उल्लेख तालगुण्ड ताम्रपत्र में मिलता है। भागीरथ के बाद क्राकुत्सवर्मन शासक हुआ तालगुण्ड ताम्र-लेख से पता चलता है कि इसकी पुत्री का विवाह कुमार गुप्त के साथ हुआ था। काकुत्स वर्मन के बाद कृष्ण वर्मन शासक हुआ जिसके अश्वमेघ यज्ञ किये जाने का उल्लेख है। इस वंश का अन्तिम शासक मृगेश वर्मन हुआ। इसके बाद यह वंश पल्लव साम्राज्य में विलीन हो गया।

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