बहमनी साम्राज्य

बहमनी साम्राज्य

 बहमनी साम्राज्य सल्तनत के अन्य प्रान्तों की भाँति मु0 तुगलक के समय हुए विद्राहों का परिणाम माना जा सकता है। अमीर-ए-सदा सौ गाँवों के प्रशासनिक अधिकारी हुआ करते थे। अमीर-ए-सदाओं का भी विद्रोह मु0 तुगलक के समय में शुरू हुआ। गुजरात के अमीर-ए-सदाओं के पश्चात् गुलबर्गा, सागर और दौलताबाद के अमीर-ए-सदाओं ने विद्रोह किया उन्होंने अपना नेतृत्व कर्ता इस्माइल मख को बनाकर उसे नसिरुद्दीन शाह की उपाधि देकर स्वतन्त्रता घोषित की। इस्माइल मख ने जो कमजोर और वृद्ध हो चुका था। स्वेच्छा से समस्त भार जफर खाँ नामक व्यक्ति को सौंप दिया जिसने फारस के वहमन शाह वंश से अपने आप को जोड़कर अलाउद्दीन वहमनशाहन की उपाधि धारण कर 1347 में गुलबर्गा दौलताबाद के पास अलग बहमनी राज्य की स्थापना की। बहमनी राज्य उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक फैला हुआ था। इसके प्रमुख प्रान्तों में दौलताबाद, वरार, बीर गोलकुण्डा, अहमदनगर, गुलबर्गा आदि क्षेत्र थे। कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के बीच दोआब जिसे रायचूर दोआब के रूप में जाना जाता है सदैव दक्षिण भारत के दो महत्वपूर्ण राज्य विजय नगर और बहमनी के बीच संघर्ष हुए।
विजय नगर तंुगभद्रा में दक्षिणी के किनारे पर स्थित आधुनिक हम्पी हस्तिनावती नामक स्थान पर विद्यारण्य के सहयोग एवं प्रेरणा से हरिहर, बुक्का द्वारा स्थापित महत्वपूर्ण नगर था। जो मुहम्मद तुगलक के समय में 1336 ई0 में स्वतन्त्र हुआ था।

इस प्रकार मु0 तुगलक के ही समय में दक्षिण भारत में खानदेश वहमनी, और विजयनगर जैसे राज्यों की स्थापना हुई। वहमनी में 1347 ई0 से लेकर 1526 ई0 तक 180 वर्षों में 11 सुल्तान हुए। इनमें बहमन शाह, मु0 शाह प्रथम, फिरोजशाह, अहमदशाह प्रथम, अलाउद्दीन, अहमदशाह द्वितीय, हुमाँयू, निजामशाह, मु0 शाह द्वितीय, शिहाबुद्दीन, महमूद शाह।
शिहाबुद्दीन मसूद शाह के समय में बहमनी पांच प्रान्तों में विभक्त हो गया। 1484 ई0 में वरार में इमादशाही वंश 1489 ई0 में वीजापुर में आदिलशाही वंश 1490 ई0 में अहमदनगर में निजामशाही वंश 1512 ई0 में गोलकुण्डा में कुतुबशाही वंश 1426 ई0 में वीदर में वरीद शाही वंश भी स्थापना हुई। वहमनी साम्राज्य का अन्तिम शासक मजीमुल्ला माना जाता है। जो दक्कन की कोमाडी माने जाने वाले अमीर अली वरीद का कठपुतली शासक था। कासिम अली वरीद के पश्चात् अमीर अली वरीद का प्रमुख वहमनी राज्य में बढ़ गया था। 1526 ई0 में अमीर अली वरीद ने वीदर में अलग वरीद शाही वंश भी स्थापना कर स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की।
वरार अन्ततः 1574 ई0 में और वीदर 1619 ई0 में क्रमशः अहमद नगर और वीजापुर साम्राज्य के अंग बन गये और अन्ततः 1633 ई0 में शाहजहाँ ने अहमदनगर को 1686 ई0 में औरंगजेब ने वीजापुर को तथा 1687 ई0 में औरंगजेब ने गोल कुण्डा को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

प्रारम्भ में वहमनी नगर में मात्र चार तरफ प्रान्त थे इनमें दौलताबाद, गुलबर्गा वरार और वीदर। और बहमनी राज्य की राजधानी गुलवर्गा थी। परन्तु अहमद प्रथम ने वहमनी भी राजधानी गुलवर्गा से हटाकर वादिर स्थानान्तरित की जो अन्तिम समय तक बनी रही।’ बहमनी के विकास में सर्वाधिक योगदान महमूद खाँ नामक इरानी व्यापारी का दिखाई देता है। जो व्यापार के उद्देश्य से वहमनी राज्य में आया और अन्ततः वहमनी राज्य के वजीर पद पर रहते हुए वहमनी का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पर्याप्त विकास किया। महमूदखाँ की पहली बार वर्णन अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय के समय में दिखाई देता है जब इस नाल कोण्डा के विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया था। जालीम नाम से प्रसिद्ध दक्कन के नीशे हुमायूँ के काल में महमूदखाँ वहमनी राज्य का वजीर बनाया जाता है। इसे मलिक वुज्जार (व्यापारी प्रधान) की उपाधि प्रदान की जाती है और ख्वाजाजहाँ की उपाधि दी जाती है। निजामशाह के समय में महमूदखाँ का उत्कर्ष होता है। उसके संरक्षक के रूप में बहमनी का न सिर्फ साम्राज्य विस्तार करता है अपितु कई बार विजयनगर एवं उड़ीसा के शासकों को परास्त करता है। अन्ततः विजयनगर से गोवा छीनकर वहमनी में मिला लेता है। रायचूर के अनेक किलों पर वहमनी का अधिपत्य स्थापित करा देता है। परन्तु मु0 तृतीय के समय में उड़ीसा के शासकों के नाम से जालीपत्रों के माध्यम से अफाकियों एवं दक्कनियों के पारस्परिक षडयन्त्र का शिकार बन जाता है और अन्ततः इसे फाँसी दे दी जाती है। मु0 तृतीय के समय में 1481 ई0 82 ई0 में खाँ की फाॅसी के बाद शीघ्र ही बहमनी साम्राज्य का पतन हो जाता है। खाँ एक विद्वान कला संरक्षक था। जिसने मिश्र तुर्की और ईरान के साथ न सिर्फ पत्र व्यवहार किया अपितु वैदेशिक सम्बन्ध स्थापित किया। इसकी रचनाएं और पत्र रिजाउल इंशा के नाम से आज भी उपलब्ध होते हैं। इसने वीदर में उच्च शिक्षा हेतु आधुनिक सुविधाओं से युक्त एक बड़े मदरसें का निर्माण कराया।

महमूद खाँ के ग्रन्थ:-  रौजत-उल-इन्शा

दीवान-ए-असरा

मु0 तुगलक के समय जफर खाँ ने 1347 ई0 में बहमनी साम्राज्य की स्थापना कर अलाउद्दीन बहमन शाह के रूप में शासन शुरू किया। इसने अपनी राजधानी गुलबर्गा में बनायी। राज्य को दौलताबाद, गुलबर्गा, वीदर, और वरार में बांट दिया। राजधानी, गुलबर्गा का नाम अहसना बाद रखा। यह एक धार्मिक सहिष्णु शासक था। हिन्दुओं को बड़े पैमाने पर प्रशासन में जगह दी। इसने हिन्दुओं पर से जजिया कर हटा लिदया। मु0 शाह इस वंश का महत्वपूर्ण शासक हुआ। इसी के समय में रायचूर दोआब के लिए विजय नगर बहमनी में संघर्ष शुरू हुआ। पहली बार वारूद का प्रयोग इस युद्ध में हुआ। इसने बहमनी राज्य की उत्तरी सीमा उड़ीसा के शासकों मालवा और गुजरात के साथ मिलती थी। बहमनी के प्राख्यात शासकों में फिरोज खाँ नाम सर्वोपरि है उसने कई बार समकालीन शासकों को परास्त किया। खेरला के शासक को परास्त कर उसकी पुत्री से विवाह किया उसका समकालीन विजय नगर का शासक देवराय द्वितीय था इसने उसे दो-दो बार परास्त किया और अन्तिम बार परास्त होने के बाद इसका पतन हो गया।

फिरोज और देवराय द्वितीय के बीच सुनार की पुत्री पर स्थल को लेकर युद्ध हुआ। इसी लिए इस युद्ध का नाम सुनार की बेटी के युद्ध के रूप में जाना जाता है। इस युद्ध में देवराय परास्त हुआ। देवराय को फिरोज ने परास्त कर उसकी पुत्री से विवाह किया एवं वका नामक क्षेत्र को देने हेतु विवश किया। फिरोज एक प्रसिद्ध एवं संस्कृति संरक्षक शासक के रूप में जाना जाता है इसके समय में ऊफाकियों (विदेशियों) एवं दक्किनियों के बीच में संघर्ष तेज हो गया। परन्तु इसने फिर भी ऊफाकियों को बड़े पैमाने पर आमन्त्रित किया। फिरोज ने जिस प्रकार अकबर ने फतेहपुर सीकरी की स्थापना की थी उसी तर्ज पर भीमा नदी के तट पर फिरोजाबाद नामक नगर की स्थापना की। फिरोज के पश्चात् अलाउद्दीन अहमद द्वितीय हुआ। इसी के समय में गवाँ भारत आया और वहमनी प्रशासन से जुड़ा। अलाउद्दीन अहमद द्वितीय के पश्चात् अल्प काल के लिए जालिम के रूप में प्रसिद्ध दक्कन के नीरो हुमायूँ का शासन रहा जिसने खाँ का उत्कर्ष हुआ। हुमायूँ ने अपने अल्प व्यस्क 8 वर्षीय पुत्र निजामशाह के लिए एक संरक्षक परिषद की स्थापना की जिसमें ख्वाजा-ए जहाँ तुर्क राजमाता मठा दूबे आलम एवं खाँ थे। इस समय में खाँ ने अपने चातुर्थता प्रशासनिक दक्षता और बुद्धि से न सिर्फ वहमनी को सर्वोत्कृष्ट स्थिति में ला दिया अपितु गोवा और रायचूर के अनेक किलों को विजयनगर से छीनकर वहमनी में मिला दिया।

निजामशाह के पश्चात् मु0 तृतीय गद्दी पर बैठा। इसके समय में दुःखद घटना महमूद गवाँ को फाँसी दिया जाना था। जो गजपति शासक के नाम से जाली षडयंत्रकारी दक्कनियों के पत्र का शिकार हुआ। अन्ततः सुल्तान को अपनी गलती का आभास हुआ और उसने षडयंत्रकारियों को कठोर दण्ड दिये। अन्ततः विक्षिप्त और पागल अवस्था में जो महा करता था कि महमूद गवाँ का भूत उसे मार डालना चाहता है। उसकी मृत्यु हो गयाी। मु0 तृतीय के पश्चात् बहमनी का अन्तिम महत्वपूर्ण शासक सिहाबुद्दीन महमूद हुआ। इस समय तक आते-आते ऊफाकियों एवं दक्कनियों में संघर्ष बढ़ गया था और सफलतान पर अफाकियों में सरदार काशिम वरीद और दक्कन की लोमड़ी के रूप में प्रसिद्ध अमीर अली वरीद का प्रभाव बढ़ गया। इसी कारण सिहाबुद्दीन महमूद के समय बहमनी में तरफ तारों (प्रान्तपतियों) ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। इस वंश का अन्तिम शासक कली मुल्लाह था। 1526 ई0 में उसकी मृत्यु के साथ ही बहमन शाह द्वारा शुरू किया गया बहमनी साम्राज्य समाप्त हो गया। उसकी पृष्ठ भूमि पर पांच नये स्वतन्त्र राज्यों का गठन विभिन्न प्रान्तपतियों ने किया। बहमनी के अन्तिम महत्वपूर्ण शासक शिहाबुद्दीन महमूद के समय में बहमनी 5 अलग-अलग राज्यों में विभक्त हो गया जहाँ अलग-अलग राजवंशों की स्थापना हुई।

1. बरार-(इमादश्शाहीवंश 1484 ई0)

बहमनी साम्राज्य से बरार में सबसे पहले अपनी स्वतन्त्रता घोषित की। 1884 ई0 में शिहाबुद्दीन महमूद के समय में फतेह उल्लाह इमादशाह के नेतृत्व में स्वतन्त्रता की घोषणा हुई। वरार में इमादशाही वंश की स्थापना हुई। 1884 ई0 में घोषणा के बावजूद 1490 ई0 में पूर्णरूप से कार्यान्वित हुआ। पलीचपुर, वुरहानपुर इसके महत्वपूर्ण प्रशासनिक केन्द्र थे। वुरहान इमादशाह इस वंश का अन्तिम शासक था। इसके समय में 1574 ई0 में अहमद नगर के शासक मुर्तजा निजामशाह ने इसे अहमद नगर में मिला दिया। गोलकुण्डा वीजापुर से अपने वैमनस्य के कारण यह राज्य 1565 ई0 में हुए तालीकोटा के महासंघ में सम्मिलित नही हुआ।

2. अहमद नगर (निजामश्शाही)

इसकी स्थापना निजामशाह ने 1490 ई0 में की। इसने निजामुल मुल्क की उपाधि धारण की और मु0 तृतीय के समय में वजीर पद पर नियुक्त हुआ। मुर्तजा निजामशाह इस वंश का सबसे प्रख्यात शासक हुआ जिसने वरार सहित अनेक क्षेत्र अहमद नगर में सम्मिलित किए। चाँदवीवी यहीं की शहजादी थी जिसका विवाह बीजापुर में हुआ। आदिलशाह की मृत्यु के पश्चात् चाँदवीवी वापस अहमदनगर आ गयी और यहाँ की राजनीति में अल्पवयस्क शासक वुरहान के संरक्षकत्व में शासन में हस्तक्षेप कर रही थी। अकबर के समय में चाँदवीवी के शौर्य का पता चलता है और वरार अहमदनगर से छीन लिया गया। अवीसीनियाई दास मलिक अम्बर अहमद नगर का एक योग्य वजीर था। जिसे तीन बार हासता से मुक्त किया गया था। छापामार युद्ध पद्धति (गुरिल्ला पद्धति) का जन्मदाता मलिक अम्बर ने जहाँगीर के समय में न सिर्फ मुगलों को परेशान किया अपितु अहमद नगर को दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान कराया।
अन्तिम अम्बर ने दक्षिण भारत के भूमि सुधार एवं राजस्व के मामले को एक नयी दिशा प्रदान की। अन्तिमरूप से 1633 ई0 में शाहजहाँ ने अहमद नगर को सल्तनत में मिला लिया। यहाँ के शासक वंश को निजामशाही वंश कहा जाता है।

3. बीजापुर (आदिलशाही 1489 ई0)

बीजापुर बहमनी से स्वतन्त्र हुए राज्यों में सबसे पहले और महत्वपूर्ण राज्य था। ये अपने आप को फारस के शियावंश से सम्बन्धित मानते थे। यहाँ के वंश को आदिलशाही वंश कहा जाता है। बीजापुर की स्वतन्त्रता आदिलशाह के नेतृत्व में 1489 ई0 में शिहाबुद्दीन महमूद के समय में हुई। युसुफ आदिलशाह, इशहिम आदिलशाह, आदिलशाह द्वितीय जिसे अवला बाबा जगत गुरु आदि नाम से जाना जाता है। इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे। 1510 ई0 में अल बुर्क के नेतृत्व में पुर्तगालियों ने बीजापुर से गोवा छीन लिया। अन्तिम रूप से सिकन्दर शाह के समय में 1686 ई0 में औरंगजेब ने बीजापुर को जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

4. गोलकुण्डा (कुतुबशाही)

आधुनिक वारंगल जहाँ हिन्दू शासक भारतीयों का शासन था। यहाँ बहमनी राज्य के दो महत्वपूर्ण प्रशासनिक केन्द्र वारंगल और राजमुन्दरी थे। मछली पट्टनम जैसा विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह इसी राज्य में आता था। विश्व प्रसिद्ध हीरे की खान गोल कुण्डा में ही थी। यह राज्य शिहाबुद्दीन महमूद के समय में 1512-13 ई0 में स्वतन्त्र हुआ। इसका संस्थापक कुली कुतुबशाह माना जाता है। यहाँ कुतुबशाही वंश की स्थापना हुई। कुली खाँ इस वंश के महत्वपूर्ण शासकों में माना जाता है। कुली खाँ ने हैदराबाद नगर की स्थापना की और हैदराबाद में चार मीनार बनवाया। इस वंश में अब्दुल्ला के समय में बेगम हयात खाँ जैसी शासिका ने शासन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
यदना और अठाना नामक भाई गोलकुण्डा के महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर आसीन थे और प्रशासन में उनकी जबरदस्त पकड़ थी। इस वंश का अन्तिम शासक अबुल हसन था। जिसके समय में 1887 ई0 में औरंगजेब ने घोड़ों से इसे जीतकर मुगल साम्राज्य में इसे मिला लिया था।

5. बीदर (वरीदशाही)

प्रारम्भ में वीदर बहमनी राज्य का एक प्रान्त था। बाद में अहमद प्रथम ने बहमनी राज्य की राजधानी गुलबर्गा से हटाकर वीदर में स्थानान्तरित कर दी। वीदर उस समय सूती वस्त्रों के लिए जाना जाता था। बहमनी राज्य का अन्तिम शासक अली मुल्लाह तक कासिम अली वरीद और उसके पुत्र अमीर अली वरीद से ही चलती रही। कासिक अली वरीद भी महमूद गवाँ की तरह अफाकी समुदाय से सम्बन्धित था।

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